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* तारण-वाणी*
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का वर्णन न करते और बारह व्रतों में इसे शामिल न कर जाते जो कि श्रावकों के लिए कहे गये हैं। श्री तत्त्वार्थसूत्रजी ग्रन्थ, जिसमें तीन लोक का सब वर्णन है उसमें भी जिसका निमात्र कोई जिक्र नहीं। कहते हैं कि पहिले प्रतिमा काष्ठ की थी फिर लोहे की चली फिर पाषाण की; सबसे पीछे धातु की चलीं । ठीक है भट्टारकों ने जो चलाई सो चली; परन्तु यदि आचार्यों के समय में यह सब कुछ हुआ होता तो आखिर वे भी कहीं अपने शास्त्रों में सिद्धांत रूप से इसका वर्णन करते । सब से प्राचीन इतने बड़े बड़े पूज्य ग्रन्थ श्री जयधवल, महाधलल, इनमें तो प्रतिमा का प्रकरण अवश्य ही निकलना चाहिए जब कि यह महाग्रन्थ सर्व प्रथम रचना के हैं, और है तथा माने जाते हैं ।
इस दूसरी गाथा के आधार पर इतना अधिक इसलिये ही लिखना पड़ा कि यहीं से तो ठीक समझकर आगे चलना है। भगवान जिनेन्द्रदेव हमें सद्बुद्धि दें कि हममें कोई भूल न रहे।
स्वर्गीय पं० जयचन्द जी कि जिनके पुत्र भी जयपुर के समस्त पंडितों में सर्वश्रेष्ठ थे, वे पं० जयचन्द जी अष्टपाहुड़ की अपने द्वारा की गई भाषाटीका में लिखते हैं कि- "जाके दर्शन नाहीं ताकें धर्म भी नाहीं, मूल बिना वृक्ष के स्कन्ध, शाखा, पुष्प, फलादिक कहां ते होंय, तात यह उपदेश है-जाकें धर्म नाही तिसकें धर्म की प्राप्ति नाही, ताकू धर्म निमित्त काहेको वदिए । 'धर्म' इस शब्द का अर्थ यह है जो आत्मा कू संसार तें उद्घारि सुखस्थान विर्षे स्थापे सो धर्म है । बहुरि दर्शन नाम देखने का है। ऐसें धर्म की मूर्ति देखने में आवे सो दर्शन है सो प्रसिद्धतामें जामें धर्म का ग्रहण होय ऐसा मत... 'दर्शन' ऐसा नाम कहिये है । सो लाक में धर्म को तथा दर्शन की सामान्यपने मान्यता तो सर्व के है परन्तु सर्वज्ञ बिना यथार्थ म्वरूप का जानना होय नाही, अर छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि तें अनेक म्वरूप कल्पना करि अन्यथा स्वरूप स्थापि निसको प्रवृत्ति करें हैं ।" आदि, आदि ।
दसणमट्ठा भट्ठा दंषणभट्ठस्स णस्थि णिवाणं ।
सिझंति चरियभट्ठा दसणभट्ठा ण सिझति ॥३।। अर्थ-जे पुरुष दर्शन तें भ्रष्ट है ते भ्रष्ट हैं, जे दर्शन तें भ्रष्ट हैं तिनिक निवाण नाही होय है, जातें यह प्रसिद्ध है जे चारित्र तें भ्रष्ट हैं ते तो सिद्धि कूँ प्राप्त होय हैं अर दर्शन भ्रष्ट है ते सिद्धि कू प्राप्त नहीं होय हैं।
सम्मत्तस्यणमट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई ।
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥४॥ अर्थ-जे पुरुष सम्यक्तरूप रत्न करि भ्रष्ट हैं और बहुत प्रकार के शास्त्रनि कू जाने हैं तोऊ ते भाराधना करि रहित भये सते इस संसार विर्षे हो भ्रमें हैं । दोय बार कहने तें बहुन भ्रमण