________________
* तारण-वाणी *
[ ८३
स्पष्ट ही कर दिया कि अचेतन में चेतन कूं मानै सो अज्ञानी हैं व जो चेतन में चेतन कू माने सोही ज्ञानी हैं। इससे अधिक और क्या लिखते ? कि अचेतन को ध्यावै सो मिध्यादृष्टि हैं व निजद्रव्य जो आत्मा ताकू ध्यावै सो ही सम्यग्दृष्टि है व निर्वाण कू पावै है । प्रयोजन यह कि यदि इस मान्यता को ही रखना है कि हम कुन्दकुन्दाम्नायी हैं तो आप उनके रचित अपाहुड, रयणसार आदि उपलब्ध ग्रन्थों को श्राद्योपांत देख लीजिए कि प्रतिमा खण्डन ही तो मिलेगा, मान्यता की एक भी कोई गाथा आपको नहीं मिलेगी, न मुनिधर्म के उपदेश में और न श्रावक धर्म के उपदेश में; तब तो हमारी मान्यता प्रतिमा में न रहना चाहिये । हाँ, यह दूसरी बात है कि कहने भर के लिये हम उनके अनुयायी हों व जो मान्यता हृदय में बन बैठी है वह तो नहीं छूट सकती । क्योंकि भट्टारकों का बिछाया हुआ जाल जो कि सैकड़ों वर्ष से हमारे संस्कार में बैठ गया है उसका छूट जाना भी तो आसान नहीं, क्योंकि उन्होंने तो क्या क्या जाल बिछाए ? इतिहास देखो तब आँखें खुलती हैं और आत्मा में महान् खेद भी होता है। देखो श्री नाथूराम जी प्रेमी द्वारा सम्पादन किया हुआ 'जैन साहित्य और इतिहास' उसकी एक चर्चा जब उनका ( भट्टारकों का ) पूरा पूरा जोर था तब की तो क्या कहें ? अभी अभी वि० सं० १६३६ में गजपंथा क्षेत्र बना दिया व गजपंथा पूजन विधान एक ही दिन में भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्त्ति ने बना लिया । इस तरह इतिहास यदि निष्पक्ष भाव से देखा जाय तो पता चलेगा कि भट्टारकों ने धार्मिक मान्यताओं के सम्बन्ध में हमें कितने गहरे पानी में उतार दिया कि जिसमें से निकलना ही कठिन हो गया है । किन्तु यदि हाँ, विद्वद्वर्ग प्रयत्न करे तो सफल हो सकता है ।
जिनप्रतिमा का दर्शन नहीं, सम्यग्दर्शन ही मोक्षमहल की सीढ़ी है ।
काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वज्रमाणस्स ।
दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण || १ || ( मंगलाचरण )
प्रातःस्मर्णीय १०८ श्री कुन्दकुन्दाचार्य अष्टपाहुड विपैं प्रथम दर्शनपाहुड़ में श्री ऋषभदेव से लगाय श्री वर्धमान श्री तीर्थंकरों ताई नमस्कार करके दर्शन कहिए सम्यग्दर्शन का मार्ग यथा क्रम होने की प्रतिज्ञा करे हैं।
1
दंसणमूलो धम्मो उवहट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्बो ||२||
अर्थ - श्री जिनेन्द्रदेव ने शिष्यों के लिए धर्म का मूल दर्शन कहा है सो हे शिष्यो ! कान