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* तारण-वाणी
गाथा ३५ में-पांच इन्द्री, मन, वचन, काय ( यह तीन बल ) श्वासोच्छवास, और श्रायु प्राण-यह १० प्राण करि अरहत का स्थापन है। प्रतिष्ठाचार्य महोदय १० प्राणों में से इन दसों की ही या किन किन प्राणों की प्राणप्रतिष्ठा करते हैं ?
तात्पर्य यह कि गाथा २८ से ४१ तक चौदह गाथाओं में चारों निक्षेप का वर्णन करते हुये यह बताया कि इस प्रकार जामें होंय सो ही अरहंत प्रणाम करवे योग्य है, अन्यथा नहीं।
नोट-द्रव्यापेक्षा १० और नहीं तो-काय, वचन, श्वासोच्छ्वाम, आयु यह ४ प्राण कहे ।
इस तरह जो यथार्थ स्वरूप अरहत का था का वर्णन श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने किया है प्राकृत भाषा में, जिसमें कहीं रश्चमात्र भी गंध इस बात की नहीं है कि यह तो निश्चय कथन है और व्यवहार में काष्ठ, पाषाण, धातु की प्रतिमा मानना-पूजना योग्य है।
अब जब टीकाकारों ने अथवा वर्तमान के पंडितों ने कि जिन्होंने ग्रंथों को छपाया अपनी तरफ से बिना किसी प्रमाण दिए लिम्व दिया कि यह तो निश्चय कथन है, क्योंकि मूर्ति का अस्तित्व ही समाप्त प्राय: उन्हें दिग्बाई दिया; किन्तु उनका लिग्वना तो पानी में तेल की तरह स्पष्ट दिखाई देता है। श्री कुन्दकुन्द स्वामी की चमकती हुई निर्मल चांदनी तथा शीतलता में कोई अन्तर नहीं पाया। श्री कुन्दकुन्द म्वामी की जय तथा कुन्दकुन्द स्वामी के सिद्धांत को मान कर उसका ही प्रकाश करने वाले प्राचार्य मण्डल की जय कि जिन्होंने उनके सिद्धांत को अक्षण्ण रक्खा और अध्यात्मधर्म जो कि जैनधर्म का प्राण है उस प्राण की जीवन-ज्योति को बुझने से बचा लिया, अन्यथा भट्टारकों ने तो प्राण-घातक प्रहार कर ही दिया था। जिन भट्टारकों के संबंध में व उनको मानने वालों के सम्बन्ध में स्वयं श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने खेदपूर्वक यह वचन कहे कि
जे दंसणेसु भट्ठा पाए ण पडंति दसणधराणं । ते होति लल्लमा बोही पुण दुल्लहा तेसिं ॥१२॥ जेपि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जगारवमयेण ।
तेसि पि णत्थि बोही पावं अणमोअमाणाणं ॥१३॥ अर्थ-जे पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं और दूसरे दर्शनधारकों से अपने पग पड़ावें, नमस्कार करावें ते परभव विषं लूला व मूक होय है तथा फिर उन्हें ज्ञानप्राप्ति दुर्लभ हो जाय है ।
तथा जे उन्हें दर्शनभ्रष्ट जान कर भी लज्जा, भय, गर्व की इच्छा से उनके पग पड़ते हैं उन्हें भी परभव में बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति दुर्लभ हो जाय है । क्योंकि पाप की अनुमोदना करना भी पाए करने व कराने वाला हो जाय है ।