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* तारण-वाणी
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कि मूर्ति-दर्शन से परहन्त, सिद्ध का स्वरूप याद आ जाता हो । तब यह मान्यता निराधार व कल्पित सिद्ध हुई कि जो बात मुनि तक को तो कठिन बताई जा रही हो और श्रावक वह भी पड़े, बिना पढ़े और स्त्री बच्चों को सरल हो।
अतएव अरहन्त सिद्ध का वास्तविक स्वरूप यदि जाना जा सकता है तो केवल शास्त्राध्ययन से ही जाना जा सकता है, मूर्ति से तो जीवन भर बैठे हुए भी नहीं जाना जा सकता कि दर्शन करते रहें और जान जाएँ।
ज्ञानवान-विवेकी सज्जनों को इस पर गहरा विचार व मनन करना चाहिये अन्यथा मृगमरीचिका जैसी भूल न बनो रहे कि आशा २ में जीवन चला जाय और प्रात्मकल्याण का सचा मार्ग हम न पा सकें।
बोधपाहुड़ गाथा २४ में-देव वाकू कहिए दीक्षा जाकै होय । गाथा २५ में कहा किदवो ववगयमोहो उदयकरो भव्यजीवाणं । देव है सो नष्ट भया है मोह जाका ऐसा है सो भव्य जोवनिकें उदय करने वाला है। २६ में-णिरुवमगुणमारूढो अरहनो एरिसो होई । ३० मेंहतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहन्तो। गाथा ३१ में तो स्थापना का बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया है कि- गुणस्थान, मार्गणास्थान, पर्याप्ति, प्राण बहुरि जीवस्थान इन पांच प्रकार करि अरहन्त पुरुष की स्थापना प्राप्त करनी अथवा ताकू प्रणाम करना । इस अर्थ के सामने अब कहां यह गुंजाइस रह जाती है कि चार निक्षेप में एक स्थापनानिक्षेप कह कर प्रतिमा की स्थापना करके उसे प्रणाम करना और प्राणप्रतिष्ठा करके अरहन्त मानना । जिस प्राणप्रतिष्ठा (मंत्र के द्वारा उसमें प्राण डालना) को आज बड़े बड़े वैज्ञानिक कि जिन्होंने आश्चर्यजनक चमत्कार दिखा दिये वे किसी धातु, पाषाण, काष्ठ इत्यादि में प्राण प्रतिष्ठा न कर सके जो प्राण प्रतिष्ठा हमारे प्रतिष्ठाचार्य मात्र पांच पचास रुपये में ही कर देते है। बाकी गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति जीव फिर भी यह ४ बाकी रह जाते हैं जबकि श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जिसमें पांच हों उसे ही भरहन्त जानकर प्रणाम करना ।
तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहन्तो ।
चउतीसअइसयगुणा होति हु तस्सहपडिहारा ॥३२॥ गाथा ३३ में कहा कि-चौदह मार्गणा अपेक्षा अरहन्त की स्थापना जानना, जिन चौदह मार्गणाओं में पहली गति मार्गणा' से मनुष्यगति हो, अब जहां पहली मार्गणा में हो ० हो वहां और की चर्चा तो व्यर्थ ही है।
गाथा ३४ में-आहार, शरीर, इन्द्रिय, मन, श्वासोच्छवास, भाषा इन छह पर्याप्ति गुण करि समृद्ध सो उत्तमदेव अरहत हैं।