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* तारण - वाणी *
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने स्त्रयं बोघपाहुड़ की दूसरी गाथा में कहा किसकलजनबोधनार्थं, जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । वक्ष्यामि समासेन च षट्काय हितंकरं शृणु ॥ २ ॥
अर्थ - आचार्य कहै हैं जो मैं छह काय के जीवनि कूँ सुख का करने वाला जिगमार्ग विषै जिनदेव ने जैसा कहा तैसा समस्त लोकनि का हित का है प्रयोजन जामें ऐसा ग्रन्थ संक्षेप करि कहूँगा ताकू हे भव्य जीव ! तुम सुनो ।
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इस गाथा से बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि - श्री कुन्दकुन्द स्वामी के कथन में श्रावक तथा मुनि इन दोनों की मान्यता वाली सभी बातें गईं। हम अपनी तरफ से व्यवहार कहकर उनकी आज्ञा के बाहर नहीं चल सकते । यदि अपने को कुन्दकुन्दशम्नायो मानते हैं तो और अधिक प्रमाण क्या दें ?
अरहन्त तथा सिद्धों का स्वरूप जानना परमावश्यक है
वि जाणई जिणसिद्धसरूव तिविण तह यिप्पाणं ।
जो तिब्वं कुणइ तवं सो हिंडई दीहसंसारे || १२४॥
अर्थ – जो मुनि न तो भगवान अरहन्तदेव का स्वरूप जानता है, न भगवान सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप जानता है और न बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के भेद से अपने आत्मा का स्वरूप जानता है वह मुनि यदि तीव्र तपश्चरण करे तो भी वह इस जन्म-मरणरूप महासंसार में दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है ।
भावार्थ- पंच परमेष्ठी का तथा आत्मा का स्वरूप जानना सम्यग्दर्शन का साधन है। जो इनका स्वरूप नहीं जानता वह सम्यग्दर्शन को भी प्राप्त नहीं कर सकता तथा बिना सम्यग्दर्शन के तीव्र तपश्चरण करने पर भी वह संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है। यहां इस बात के विचारने की आवश्यकता है कि सर्व साधारण में ऐसी जो मान्यता है कि बीतराग मूर्ति के दर्शन सेहत भगवान के स्वरूप की तथा पीतल में जो आकार बनाकर सिद्ध की मान्यता है उससे सिद्ध भगवान के स्वरूप की याद आती है, जानकारी होती है। कहां इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द जी यह कह रहे हैं कि जिन मुनियों को अरहन्त तथा सिद्धों के स्वरूप की व तीन भेद से आत्मस्वरूप की खबर नहीं होती वे मुनि दीर्घकाल तक संसार परिभ्रमण करते रहते हैं तो मालूम हुआ कि उनके ( अरहन्त सिद्ध के ) स्वरूप को जानना कोई गहरी बात है, इतनी सरल बात नहीं है