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* तारण-वाणी
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कहे इनहीं की विनय, प्रशंसा, स्तुति करना व इनहीं का प्राश्रय लेना धर्मात्मा पुरुषों को योग्य है । यह बोधपाहुड़ प्रन्थ निर्माण करने का प्राशय है। बहुरि जामें ऐसे (सच्चे पायतन स्वरूप) मुनि वसें ऐसे क्षेत्र कू भी आयतन कहिये है सो यह व्यवहार है ॥७॥ बोधपाहुइ-६० जयचन्द जी ।
यहां विचार करो कि–सर्वप्रथम तो श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भगवान की प्रतिमा को धर्मायतन नहीं कहा, दान के सात क्षेत्रों में प्रतिमा पूजन अष्टद्रव्य से' करने को सात क्षेत्रों में नहीं गिना तब गृहस्थ जो द्रव्य का खर्च प्रतिमापूजन प्रतिष्ठादि में करते हैं वह कौन से क्षेत्र में समझा जाय ? तथा जिस शरीर को बौद्धमत ने धमायतन मानकर प्रतिमा की मान्यता की उनकी उस मान्यता को तो कल्पित कहा सो ठीक ही है, फिर क्या वही कल्पितपना दि० प्रतिमा में लागू नहीं होता ? क्योंकि सैद्धांतिक न्याय तो सबके सम्बन्ध में एकसा ही होता है, दो प्रकार का नहीं। नथा ऊपर जो सच्चे मुनिराजों के बसने के स्थान वसतिकादि क्षेत्र को धर्मायतन व्यवहार से माना, उम व्यवहार का विशेषरूप यहां तक भी माना जा सकता है कि जिस स्थान में धर्मात्मा पुरुष बैठकर एकत्र होकर धर्म की साधना करें ऐसे मन्दिर स्थान को भी व्यवहार धर्मायतन कहा जा मकता है, धर्मस्थान कहा जा सकता है, क्योंकि धमसाधन का स्थान है, जहां बैठकर शास्त्र स्वाध्याय करके शास्त्रप्रवचन सुनकर ज्ञानी पुरुषों द्वारा तत्त्वचर्चा सुनकर के अथवा परस्पर में तत्त्वचची करके व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से भगवान के गुणगान करके व उनके शरीराश्रित नहीं प्रत्युत आत्माश्रित गुणों को स्तुति करके अपने आप की आत्मा में प्रात्मज्ञान की प्राप्ति की जाती है व संसार, शरीर, भोगों को दुखदायी व नाशवान समझकर वैगग्यभावना जाग्रत हो सकती है। तात्पय यह कि चैत्यगृह वास्तव में तो श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने चैतन्य प्रात्मा को जानने वाले जो पंच महाव्रती मुनिराज कि जिनके शरीर में-देह में आपापर को जानने वाली भेद-ज्ञानी नि:पाप शुद्ध ज्ञानमयी श्रात्मा विराज रही है उनको चैत्यगृह कहा है। इसे भी हम आयतन की भांति व्य. वहारदृष्टि से यह जानकर कि जिस स्थान में बैठकर हमें भेदज्ञान प्राप्त होकर अपनो चैन्य आत्मा का ज्ञान होता है वहां पर बैठकर हम आत्मा का ध्यान करते हैं और अपने प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करते हैं तथा त्याग वैराग्य की भावना उत्पन्न होकर पंच महाव्रती बनते हैं, इससे ऐसे धर्मस्थान को व्यवहार से चैत्यगृह या चैत्यालय कहा गया है व कह सकते हैं, न कि प्रतिमा के स्थान को । क्योंकि यदि श्री कुन्दकुन्द स्वामी को प्रतिमा के स्थान को चैत्यगृह या व्यवहार चैत्यगृह ही मानना होता तो वे अवश्य ही कहते । क्योंकि जब उन्होंने श्रावक और मुनि तथा निश्चय
और व्यवहार इन सबका वर्णन अपने प्रन्यों में किया है तो क्या वे इन सब व्यवहार की मान्य. ताओं का वर्णन स्पष्ट नहीं कर सकते थे ? जिन्होंने श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित ग्रन्थों का अध्ययन किया है वे सभी विद्वान् भलीभाँति जानते हैं कि श्री कुंदकुद स्वामी ने दोनों नयों की कथनी की है। नहीं जानने वाले कुछ भी कहें। इस तरह पायतन तथा चैत्यग्रह का स्वरूप जानना ।