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* तारण-वाणी *
अचेतन जिनप्रतिमा और जिनविंव कोश्री कुन्दकुन्द स्वामी ने अमान्य ठहराया ।
आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ।
झाइज्जइ परमप्पा उवहट्ठ' जिणवदेिहि ||७|| ( मोक्षपाहुड )
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अर्थ - बहिरात्मा कूं मन, वचन, काय कर छोड़ि अन्तरात्मा का आश्रय लेय करि परमात्मा कूं ध्याइये, यह जिनवरेन्द्रदेव ने उपदेश्या है ।
निजदेहसदृशं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयत्नेन । अचेतनमपि गृहीतं ध्यायते परमभागेन ||९||
अर्थ - मिध्यादृष्टि पुरुष अपना देह सारिखा पर का देह कूं देख कर यह देह अचेतन है as freera कर आत्मभाव करि बड़ा यत्न करि पर का आत्मा ध्यावै है ||
भावार्थ - बहिरात्मा मिध्यादृष्टी कैं मिध्यात्कर्म का उदय करि मिध्याभाव है सो अपना देह कूं आपा जाने है तैसे ही पर का देह अचेतन है तौऊ ताकू पर का आत्मा जानि ध्यावे है, माने है, तामैं बड़ा यत्न करे है या ऐसे भात्र के छोड़ना यह तात्पर्य है । जो मिध्यादृष्टि अपना देह सारखा पर देह कू देखि तिसकूं पर का श्रात्मा मान है ।
आगे गाथा नं० १०, ११, १२ में यह बताया है कि यह जीव इम ही बहिरात्मभाव से स्त्री पुत्रादि कूं अपना जानि मोह में प्रवर्ते है आदि कहकर बताया कि जो बहिरात्मा के भाव कू छोड़ि अन्तरात्मा हो परमात्मा में लीन होय है सो मोक्ष पावै है । यह उपदेश जनाया है ।
परद्रव्यरतः वध्यते विरतः मुञ्चति विविधकर्मभिः ।
एष जिनोपदेश: समासतः बंधमोक्षस्य || १३ ||
अर्थ - जो जीव परद्रव्य विषै रत है रागी है सो तौ अनेक प्रकार के कर्मनि कर बंधै है, कर्मनि का बंध करें है, बहुरि जो परद्रव्य विषै विरत है रागी नाहीं है सो अनेक प्रकार के कर्मनि तैं छूटै है, यह बंध का अर मोक्ष का संक्षेप करि जिनदेव का उपदेश है ।
भावार्थ-बंध मोक्ष के कारण की कथनी अनेक प्रकार करि है ताका यह संक्षेप है-जो परद्रव्य सू' रागभाव सो तौ बंध का कारण अर विरागभाव सो मोक्ष का कारण है, ऐसा संक्षेप करि जिनेन्द्र का उपदेश है | १३ ||
आगे गाथा १४ में कहा है कि जो स्वद्रव्य विषै रत है सो सम्यग्दृष्टि होय है और कर्म का नाश करे है।