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* तारण-वाणी *
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के दुःखों को भोगना पड़ता है जबकि पुण्य से जो वह भी वास्तविक पुण्य हो ( पुण्य के धोखे में पाप न हो क्योंकि प्राय: अज्ञानी जीव पुण्य के धोखे में पाप करते हुए अपने को पुण्यात्मा मान रहे हैं) उससे मनुष्य व देवादि के सुख मिलते हैं कि जिससे मोक्ष तो क्या मोक्षमार्ग का भी रंचमात्र सम्बन्ध नहीं । अत: धर्म और पुण्य इन दोनों के स्वरूप को समझो, ठीक ठीक समझो, धर्म समझकर पुण्योपार्जन में ही यह मनुष्य जन्म पूरा न कर दो, जिस मनुष्य-जन्म से धर्म के द्वारा मोक्षमार्ग बनाया जा सकता है । यदि इस जन्म में हमने मोक्षमार्ग पर चलना प्रारंभ कर दिया तो मानों मोक्ष की ओर हम चल पड़े हैं। भले ही चलने में १, २, ४ भव लग जावें, किंतु निश्चित ही हम मोक्षमहल को प्राप्त कर लेंगे, अवश्य कर लेंगे । जबकि पुण्य करोडों जन्मों से करते चले आ रहे हैं, वह भी इतना कि साक्षात् भगवान के दर्शन समोशरण में करके पुण्य मिला, फिर भी आज तक मोक्ष न पाया; संसारी ही बने हैं और इसी तरह पुण्य को मोक्ष की पहली सीढ़ी मानते हुये करोड़ों जन्म भी पुण्य करते हुए मोक्ष न पा सकेंगे, संसारी ही बने रहेंगे ।
अन्त में आत्महित की दृष्टि से हमें यही मानना होगा कि वस्तु-स्वभाव के न्याय से आत्मा का स्वभाव ही धर्म है, जिस आत्मधर्म को पाने के लिये सम्यक्त ही मूल कारण है । उस सम्यक्त की प्राप्ति के लिये शास्त्र स्वाध्याय ही एकमात्र कारण है, जिस शास्त्र स्वाध्याय से द्रव्यादि तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान होता है और दूसरे किसी भी कारण से नहीं । भगवान की मूर्ति तो क्या माक्षात भगवान के दर्शन से भी सम्यक्त नहीं हो सकता, फिर भी हम कहां अटक रहे हैं ?
सर्व साधारण पुरुष भले ही यह सुनकर चौंक उठें कि— श्ररे साक्षात् भगवान के दर्शन से मी सम्यक्त नहीं होता और मिध्यात्व नहीं छूटता है । परन्तु जिन्हें सिद्धांत ज्ञान है वे इसे भली प्रकार जानते हैं । यही बात वैराग्य के सम्बन्ध में है कि मूर्ति तो क्या साक्षात् भगवान के दर्शन करने पर भी वैराग्य नहीं होता । यदि ऐसा होता तो समोशरण में पहुँचने वाले सभी को राग्य हो जाया करता, आप कहीं से चलें, आना यहीं पड़ेगा कि शास्त्र स्वाध्याय से, भगवान अथवा आचार्यों के उपदेश से इस तरह स्वाध्याय के जो ५ भेद ( पठन, प्रश्न, श्रुतचिन्तवन, प्रवर्तन, उपदेश ) कहे उनके द्वारा द्रव्यादि तन्त्रों का स्वरूप जानकर उन पर श्रद्धान करने पर ही सम्यक्त होगा, सम्यक्त होने पर ही मोक्षमार्ग बनेगा, मोक्षमार्ग पर आत्मपरिणाम उत्तरोत्तर निर्मल पवित्र होते जायेंगे, जितने २ परिणाम निर्मल होते जायेंगे उतनी २ विभाव परिणति कम होती जायगी और शुद्धात्मा में मगनता बढ़ती चली जायगी, बस एकमात्र यही मोक्षमार्ग है दूसरा कोई मोक्षमार्ग हो ही नहीं सकता ।
तजि विभाव हूजे मगन, शुद्धतम पद माँहिं । एक मोक्षमारग यहै, और दूसरो नाँहिं ॥