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* तारण-वाणी *
बात कही, परन्तु इनके बीच में गाथा नं० २१ में कहा है कि
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एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ||२१||
अर्थ - ऐसे जो ( पूर्वोक्त प्रकार ) जिनेश्वर देव द्वारा कहा गया दर्शन है सो गुणों में और दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीन रत्ननि में सार है उत्तम है, और मोक्ष मन्दिर के चढ़ने कूँ प्रथम सीढ़ी है। सो आचार्य कहें हैं- हे भव्य जीव हो ! तुम याकू अन्तरंग भाव से धारण करो, वाह्य क्रियादिक करि धारण किया तो परमार्थ नाहीं, अन्तरंग की रुचिकर धारणा ही मोक्ष का कारण है।
सारांश - ऐसे दर्शन कौं भगवान जिनेन्द्रदेव ने मोक्ष की प्रथम सीढ़ी कहा, न कि प्रतिमा के दर्शन को । इसी तरह उपरोक्त प्रकार व्यवहार व निश्चयसम्यक्त्व कहा, न कि मात्र द्रव्यादि तत्त्वों को जान लेने से व्यवहार व श्रद्धान कर लेने को निश्चय सम्यक्त्व कहा और उपरोक्त प्रकार ही व्यवहार व निश्चय कहा, न कि श्रावक का व्यवहार धर्म और मुनि का निश्चय धर्म कहा जैसी कि मान्यता सर्व साधारण जनों में हो गई है। जहाँ तक पुरुषार्थ द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति आत्मोनति की साधना है वह सब व्यवहारधर्म या व्यवहारसम्यक्त्व है, क्योंकि यह पहिले कह दिया गया है कि धर्म व सम्यक्त्व एक ही बात है जबकि पुण्य इनसे बिल्कुल ही अलग व दूसरी चीज है । और जब आत्मसिद्धि - पूर्ण परिपूर्ण आत्मलीनता हो जाती है कि जिसे आचार्यों ने बारहवां गुणस्थान यथाख्यातचारित्र कहा है वह निश्चयधर्म या निश्चयसम्यक्त्व जानना ।
हाँ, स्वाध्याय में — व्यवहारस्वाध्याय व निश्चयस्वाध्याय यह दो भेद हैं। श्री जैन शास्त्रों को पढ़ना व्यवहारस्वाध्याय है, व उनके द्वारा द्रव्यादि तत्वों के स्वरूप को जानना व्यवहारस्खाहै । मुनि श्रावक की क्रियाओं एवं पुण्य-पाप के स्वरूप को जानना व्यवहारस्वाध्याय है जबकि गाथा १६ में कहे अनुसार द्रव्यादि तत्त्वों को जानकर उनके यथार्थ स्वरूप में श्रद्धान उत्तरोत्तर श्रात्मानुभव बढ़ता जाना ही निश्चयस्वाध्याय है । जिसके द्वारा
ध्याय
सत्य प्रतीति अवस्था जाकी, दिन दिन रीति गहै समता की । छिन छिन करे सत्य को साकौ, समकित नाम कहावे ताकौ ॥ स्वाध्याय करते हुए ऐसी दशा में प्रवेश होना और समताभाव बढ़ता जाना तथा आनन्द मग्नता होने लगना यह सब निश्चयस्वाध्याय है। सोने से सोने के पात्र और चांदी से चांदी के पात्र बनते हैं, चांदी से कभी भी सोने के पात्र नहीं बन सकते हैं, ठीक इसी प्रकार धर्म से मोक्ष व पुण्य से स्वर्ग की प्राप्ति जानना । पुण्य से कभी भी मोक्ष न होगा, चाहे करोड़ों जन्म तक करते रहो । हां, पाप को त्यागकर पुण्य करना- इस दृष्टि से पुण्य अच्छा है कि पाप से नर्कादि