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* तारण-वाणी
ध्यान रहे कि- ' व्यवहारमोक्षमार्ग और निश्चयमोक्षमार्ग' इस तरह से मोक्षमार्ग दो नहीं होते, यह तो एक ही होता है। तथा गृहस्थ के लिये या गृहस्थ का मार्ग व्यवहारमोक्षमार्ग है, पर होता होगा और मुनियों के लिये या मुनियों का निश्चय मोक्षमार्ग है ऐसा भी न जानना । यदि समझपूर्वक मोक्षमार्ग पर चला जाय तो एक गृहस्थ सच्चा मोक्षमार्गी है यदि न समझी से चला जाय तो गृहस्थ तो क्या मुनि भी संसारमार्गी-कुपंथ का गामी है। जैसा कि श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है कि
मोह रहित जो है गृहस्थ भी, मोक्षमार्ग अनुगामी है ।
मुनि होकर भी मोह न छोड़ा, वह कुपंथ का गामी है। यदि आप कहें कि छहढाला की तीसरी ढाल में दौलतराम जी ने तो कहा है कि
मातम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये । माकुलता शिवमॉहि न तातें, शिवमग लाग्यो चहिये । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिवमग, सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो॥१॥ परद्रव्यन भिन्न आपमें, रुचि सम्यक्त्व भला है। आपरूप को जानपनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है ॥ आपरूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई । अब व्यवहार मोक्षमग सुनिये, हेतु नियत को होई ॥२॥ जीव अजीव तत्त्व अरु पाश्रव, बंधरु संवर जानो। निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों को त्यों सरधानौ । है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानौ ।
तिनको सुन सामान्य विशेष, दृढ़ प्रतीत उर भानौ ॥३॥ इस तरह निश्चयमोक्षमार्ग व व्यवहारमोक्षमार्ग कहे। यदि आप कहें कि तब नाटक समयसार ग्रन्थ में पं० बनारसीदास जी ने अथवा श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने मोक्षमार्ग एक ही क्यों कहा ? सो यह तो पहिले कह चुके कि द्रव्यादितत्वों का श्रद्धान व्यवहारसम्यक्त अथवा व्यवहारमोक्षमार्ग है, जबकि प्रात्मा जो कि रत्नत्रयरूप से अपने आपमें परिपूर्ण शुद्ध है उसमें पूर्णपरिपूर्ण तल्लीनता निश्चयसम्यक्त या निश्चयमोक्षमार्ग है, जैसाकि दौलतराम जी ने उपरोक्त दो व तीन न० की चौपाइयों में कहा है, परन्तु पहली चौपाई में व्यवहार और निश्चय इन दोनों का मुह एक ही दिशा में करके बांध दिया है कि- 'दुविधि विचारौ', किन्तु-जो व्यवहार निश्चय का कारण हो, अर्थात् जैसा ऊपर बहुत विस्तार से बताया जा चुका है कि-सम्यक्ती जीव चौथे