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* तारण-वाणी *
छद्दव णव पयत्था पंचत्यी सत्त तच्च गिद्दिा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिष्टी मुणेयन्वो ॥ १९ । जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्वं ।
ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥२०॥ भावार्थ-छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, समतत्व को शास्त्रस्वाध्याय के द्वारा जानकर इनमें श्रद्धान करने वाला सम्यक्त्वी है, तथा जीव आदि जे पदार्थ तिनको श्रद्धान करने वाला
सा सम्यक्त्वी श्री जिन भगवान ने व्यवहार सम्यक्त्वी कहा और जब वह सम्यक्त्वी अपने नम्यक्त्व के द्वारा निश्चय तें अपनी आत्मा ही का श्रद्धान करे उसे निश्चय सम्यक्त्वी कहा है ।
स्पष्टीकरण-मात्र जीवादि तत्त्वों के भेदानुभेद को पांडित्य द्वारा जान लेना, उसका व्यात्यान कर देना तथा जानने का आधार पुस्तकादि लिख देना, इतने भर से ही हम व्यवहार नम्यक्त्वी हो गए ऐसा न मान लेना, प्रत्युत इनके भेदानुभेद का हृदयंगम होकर तदनुसार हमारी वृत्ति बन जाय और उस वृत्ति के अनुसार हमारी प्रवृत्ति हो जाय कि जिस हमारी प्रवृत्ति में संसार की असारता जानकर संसार शरीर और भोगों से आन्तरिक अरुचि हो जाय और क्षणतिक्षण केवल त्याग की भावना रहने लगे, जितना त्याग कर सकें उतना करते जाएँ और जिस करने में आज असमर्थता दिखाई देती हो उस सामथ्र्य प्राप्ति के लिये हम प्रयत्नशील रहें, जैसा कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने गाथा २२ में कहा है कि
जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं ।
केवलि जिणेहिं भणियं सदहमाणस्स सम्मत्तं ॥ भावार्थ-जो करने कू (जितना त्याग करने की) सामर्थ्य होय सो त्याग करके उस त्याग की उत्तरोत्तर वृद्धि करता हुआ श्रद्धान एक यही रहे कि
कब गृहवास से उदास होय वन सेॐ, वे निज रूप रोकूँ गति मन-करी की। रहि हो अडोल एक आसन अचल अंग, सहि हों परीषद शीत, घाम, मेध झरी की। सारंग समाज पान कब धों खुजावे खाज, ध्यान दल जोरि, जीतूं सेना मोह परी की । एकल बिहारी यथाजात लिंग धारी, कब होऊँ इच्छाचारी बलिहारी वा घरी की ।
ऐसी प्रोत-प्रोत भावना हममें जाप्रत रहे, तब जानना कि हम सम्यक्त्वी हैं और ऐसे सच्चे सम्यक्त्वी को ही व्यवहार सम्यक्त्वी तब तक कहा गया है जब तक कि वह स्वरूपाचरण चारित्र की इस दशा को प्राप्त न हो जाय, जिसमें कहा गया है