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• तारण-वाणी*
है । वे कह रहे हैं कि हे भाई! पुण्य तो अनंतीवार अनन्त जन्मों में किया, खूब किया, और फिर भी करते रहे तो आत्मकल्याण न होगा, जैसा कि अभी तक नहीं हो सका है। अत: इस भ्रम को छोड़ दो कि पुण्य करते करते प्रात्मकल्याण हो जायगा। अब तो यदि आत्मकल्याण करना चाहते हो और संसार भ्रमण से छूटना चाहते हो तो धर्म करो, धर्म करो, यही वार वार कह रहे हैं और समझो कि धर्म क्या है, और पुण्य क्या है ?
भगवान में शुभराग करके भगवान की पूजा करना धर्म नहीं है, पुण्य है। जबकि सम्यक्त्व प्राप्त करना धर्म है जो कि धर्म मोक्षप्रदायक होगा। अतः मोक्षप्राप्ति के लिये धर्म करना होगा, जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी। जिस सम्यक्त्व के श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने दो भेद बताएव्यवहार सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व, क्योंकि व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व का कारण है, व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त न होगा । जो यहीं से यह बात चली कि बिना व्यवहार के निश्चय नहीं होता । पुण्य के लिये यह बात लागू नहीं होती कि व्यवहार पुण्य से निश्चय पुण्य होगा। क्योंकि 'पुण्य' में दो भेद नहीं हैं कि-'व्यवहार पुण्य', और 'निश्चय पुण्य' ।
बस, यहीं से जैनधर्म के मर्म को समझने में भूल हुई और हो रही है कि भगवान की पूजा को व्यवहार पुण्य मानकर निश्चय पुण्य की बात की जाने लगी कि व्यवहार पुण्य करते करत निश्चय पुण्य हो जायगा और निश्चय पुण्य से हमारी आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेगी ।
___ यह भूल साधारण भूल नहीं, इस भूल ने मोक्षमार्ग ही रोक दिया, मानो जल मंथन-करते करते घृत पाने की आशा लगाली, जिस आशा की ओर से मोड़ना कठिन हो रहा है । पुण्यदृष्टि की बहुलता के कारण धर्मदृष्टि का लोप हो रहा है, जिसके कारण धर्म दृष्टि वाली बात म्वयं दिखाई देना तो दूर रही प्राचार्य ग्रन्थों को पढ़ते हुए तथा श्री कानजी स्वामी नैसे परम आध्यात्मिक वेत्ताओं के उपदेशों द्वारा भी नहीं दिखाई देती ।
यदि हमें इस भल को दूर करके मोक्षमार्ग को पाना है, तो जैनधर्म के इस मम को समझना होगा कि धर्म और पुण्य यह दोनों प्रथक् प्रथक् मार्ग हैं, एक हो नहीं ।
पुण्य-स्वर्ग का मार्ग है, जबकि धर्म मोक्ष का मार्ग है। पुण्य मार्ग पर चलते चलत कभी भी मोक्ष न पायेंगे जब तक कि धर्म का मार्ग ग्रहण न करेंगे। अतएव पुण्य मार्ग में निश्चय और व्यवहार नहीं, धर्म मार्ग में निश्चय और व्यवहार कहा गया है, और धर्म का ही दूसरा नाम सम्यक्त्व है । यह मान्यता दृढ़ करके सम्यक्त्व मार्ग पर चलने के लिये सम्यक्त्व के निश्चय और व्यवहार के भेद को जानना होगा। जिसे कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने दर्शन पाहुड़ गाथा १६ व २० में कथन किया है, कि