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तारण-वाणी
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विलीयमान होकर यह प्रात्मा निर्मलता को प्राप्त होगी। ऐसा स्वरूप दर्शाने वाला यह ममनपाइ अंथ मैं रचता हूँ । ऐसी प्रतिज्ञा श्री तारण स्वामी ने इसमें की है। - विशेष-श्री तीर्थकर अरहंत भगवान ने भरहंत अवस्था में अपनी आत्मा से उत्पन्न हुआ उपदेश भव्य जीवों को दिया था, अत: इस उनके आभार को मान कर व्यवहार दृष्टि से उन श्री अरहंत को, और वे ही अब सिद्ध में जा विराजे हैं उन सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ, किन्तु जैनधर्म के अनुसार निश्चय दृष्टि से-न उन्हें हमारे द्वारा नमस्कार से प्रयोजन है और न हमें उनको नमस्कार करने से । अब तो हमारा प्रयोजन सिद्ध करने वाली जो हमारी अन्तरात्मा है जिसके आधार से हम मोक्षद्वीप में पहुँच सकेंगे उसकी ही आराधना पूजा भक्ति से प्रयोजन है। तथा उस अन्तरात्मा से उत्पन्न हुआ जो क्षण प्रतिक्षण मिलने वाला अध्यात्म-उपदेश उसके अनुसार चलने में ही हमारा कल्याण है। ऐसी मान्यता श्री तारण स्वामी की थी। उसी मान्यता का उनका उपदेश इस ग्रंथ में हमें दिया गया है।
विनती फूलना यह श्री ममलपाहुड़ जी की नं० ७ की फूलना है। इसमें श्री तारण स्वामी अपनी ही अंत. रात्मा को, तारनतरन जिनका सम्बोधन करते हुए विनती प्रार्थना कर रहे हैं कि हे जिन अर्थात अन्तरात्मा! तू ही मेरे लिए तारनतरन स्वरूप प्रगट हुई है । हे जिन ! मानन्दरूप है, चिदानन्दरूप है । तू मेरे इन उत्पन्न हुए कर्मों का नाश कर दे। इन कर्मों ने मुझे चारों गतियों के अनन्त दुखों में भ्रमाया है, कहूँ भी रश्चमात्र सुख न पाया । अब तू ऐसे निकृष्ट पंचमकाल में जो कि चपल व सब तरह से अनिष्टरूप है और जिसमें इष्ट दृष्टि का उत्पन्न होना बहुत ही कठिन हो गया है ऐसे समय में मेरे भाग्योदय से प्रगट हुई है । मेरा कल्याण कर । तेरा ही शरण है।
और मैंने इस तत्त्व को जैनधर्म के मर्म को समझ लिश है कि-तारन तरन जो अरहंत देव उनसे मुक्ति की प्रार्थना करना और मुक्ति पाने के लिये उन्हीं की शरण में बने रहना फलोभूत न होगा, मानों अपने आपकी आत्मज्ञान-दृष्टि को भुला देना होगा । और तारन तरन का सहारा ( परावलम्बन ) छोड़कर स्वावलम्बी (अपनी हो आत्मा का अवलम्बन ) होना ही हितकर होगा, कल्याण कारी होगा। ऐसा जानकर हे जिन ! ( अन्तरात्मा ) मैं सब प्रकार शंका व शल्यों को छोड़कर नेरी ही शरण ग्रहण करता हूँ, तू मुझे पार कर ।
विशेष-जैनधर्म बिल्कुल स्वावलम्बी है, इसमें रश्चमात्र भी परावलम्बता नहीं है । कोटि वर्ष हम भगवान से यह प्रार्थना करते रहें कि हे भगवन् ! हमें पार कर दो। तो भी वे पार नहीं करेंगे । पार करना तो दूर रहा हमारी सुनेंगे भी नहीं, कि हम क्या कह रहे हैं। उन्हें न किसी की कोई बात सुनने से प्रयोजन रह गया है और न किसी को पार करने का ही प्रयोजन रह गया