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* तारण-वाणी*
निरर्थक है, ऐसा उन्होंने प्रतिपादन किया है। श्री तीर्थंकरों के उपदेश कोचिंतामणि रत्न को उपमा देकर उस उपदेश के अपार गुण गाये, किन्तु उनके शरीर और समवशरण जो कि उनके पुएव की विभूति थी एक भी गुणगान नहीं किया, प्रत्युत उन गुणों को प्रात्मगुणों में घटाकर यह बताया कि प्रात्मगुण ही पूज्य व कल्याणकारी हैं ।
हमारी हो या श्री तीर्थकरों की पुण्यविभूति मोक्ष में साथ नहीं जाती और न पुण्यविभूति से प्रात्मकल्याण का कोई रचमात्र सम्बन्ध ही है। आध्यात्मिक पुरुष तो पुण्यविभूति को आत्महित में बाधक मानता है, तब गुणगान क्यों ? जब हमारी दृष्टि का आकर्षण पुण्यविभूति की ओर खिंच जाता है तब स्वभावतः आत्मगुणों की ओर नहीं रहता। क्योंकि उपयोग एक ही रहता है, दो नहीं। इत्यादि अनेक स्वयं के विचारों व तत्वदृष्टि से तथा जैनधर्म का वास्तविक वर्णन जैसा कुन्दकुन्दादि सभी आचार्यों ने सिद्धांत ग्रंथों में वर्णन किया है उस अध्ययन के कारण मूति को मान्यता नहीं की । श्री गांधी जी के हृदय में जैसा 'राम मन्त्र' अंकित हो गया था और वही 'राम मन्त्र' अंत समय उनके मुखारविंद से निकला था, इसी तरह श्री तारण स्वामी के हृदय में 'आत्म मन्त्र' अंकित था जो उनके द्वारा रचित ग्रंथों में पाया जाता है। एक तारण स्वामी के हृदय में ही क्या प्रत्येक आध्यात्मिक महापुरुष के हृदय में 'आत्म-मन्त्र' अंकित हो जाता है आत्ममन्त्र का ही दूसरा नाम 'राम मन्त्र' है। एक यही वह मन्त्र है जो पुरुष को महापुरुष और महापुरुष को मोक्षधाम में पहुँचाने की सामर्थ्य रखता है। यह मन्त्र साम्प्रदायिक नहीं, संसारमान्य मन्त्र है।
देवदित गाथा श्री ममल पाहुड़ जी ग्रंथ की यह गाथा सर्व प्रथम गाथा 'मंगलाचरण' की है। इसमें देव को नमस्कार किया है 'देवदिप्त' कैसा है देव ? प्रकाशमान है आत्मा के अपने गुणों से। वे गुण कौन से हैं ? तत्त्वं च नन्द आनन्द मय चेयानन्द सहाव । सप्त तत्त्वों में परमोत्कृष्ट नन्द कहिये मात्मा जो पानन्दमय है, चैतन्य स्वभाव वाली है । परमतत्त्व पद विंदमउ नमियो सिद्ध सहाऊ । परमात्मस्वरूप है, मोक्षस्वभाव वाली है। ऐसी आत्मा को जोकि सिद्धों में और तत्स्वरूप ही हमारे भीतर विराजमान है नमस्कार करता हूँ। भागे बताया है कि देव-देवे सो देव ऐसा श्री कुंदकुंद स्वामी ने कहा है। देने वाली क्या है ? आत्मा। देती क्या है ? उवन कहिये उपदेश । उस उपदेशरूपी शब्द विवान के अवलम्बन से ही यह हमारी आत्मा संसार पार करती है। ऐसी जो उपदेश की. दाता कि जिसके उपदेश से हमारा भाव परम निरञ्जन भाव को प्राप्त होता है-कर्म मल से छूट कर शुद्ध भाव को प्राप्त होता है, उस ऐसे भात्मदेव को सो मुनहु' देव जान कर नमस्कार करो, माराधना करो, भक्ति करो, पूजा करो। जिसकी आराधना भक्ति से भय, शंका, उत्पन्न हुये कर्म