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________________ तारण-वाणी मंगलाचरण - १-ॐ नमः सिद्ध प्रोम् स्वरूप को नमस्कार, जो स्वयं सिद्ध है। यह नमस्कार व्यक्तिबाचक नहीं, गुणवाचक है। श्री तीर्थकर जब दीक्षार्थ गमन करते हैं तब ॐ नम: सिद्ध'' यही नमस्कार करते हैं। यदि वे व्यक्ति के पुजारी होते तो अपने से पूर्व में हुए तीर्थंकरों को नमस्कार करते । किन्तु उन्हें तीर्थकरत्व अभीष्ट न था, उन्हें तो 'ॐ वरूप अपना प्रात्मा ही अभीष्ट था । नमस्कार का एकमात्र प्रयोजन · तद्गुणलब्धये ' ही होता है। जैनधर्म का मूल सिद्धान्त यही है। इसीलिए जैनधर्म स्वावलंबी है, परावल बी नहीं। भगवान हमारा कल्याण करेंगे अथवा भगवान की पूजा से हमारा कल्याण हो जायगा या हो रहा है, यह परावलंबता है, जैनधर्म के विरुद्ध मान्यता है, भ्रम है। प्रात्मा की पूजा याने आत्मगुणों की धाराधना, भक्ति और विकाश करना यह स्वावलंबिता है, जैन सिद्धान्त है, सही मान्यता है । इसीलिए भो तारण स्वामी ने ग्रन्थ के प्रारंभ में नमस्कार-रूप मंगलाचरण " ॐ नम: सिद्ध " इसी का किया है । और पूरे ग्रन्थ में-प्रायोपान्त ॐ स्वरूप स्वात्मा को पूजा, भक्ति, आराधना, नमस्कार, दर्शन, स्तुति करते हुए उसे विकास में लाने, दोष रहित करने व प्रात्मा में परमात्मभाव की जाप्रति करने के समस्त साधनों का वर्णन किया है। उनका आत्मा ही पाराधक व प्रात्मा ही आराध्य देव था। प्रात्मा ही ध्यान, आत्मा ही ध्याता और आत्मा ही ध्येय था । आत्मा हो ज्ञान, आत्मा ही ज्ञाता और प्रात्मा ही ज्ञेय था । भात्मा ही दर्शन, आत्मा ही ज्ञान और आत्मा ही चारित्र था। आत्मगुण पूजा की साप्रमी, प्रात्मभावनाएँ पुजारी और प्रात्मा ही देव था। आत्मा ही आत्मा में आत्मा से प्रात्मा की शुद्ध परिणति लेकर भात्मा ही के लिये प्रात्मकल्याण को रमण करना था और यही मार्ग कल्याणकारी उनको दृष्टि में था । जैनधर्मानुसार था अथवा जन-हितकारी था। जैनधर्म साम्प्रदायिक नहीं प्रात्मधर्म है। मानव तो क्या प्राणोमात्र के साथ वह धर्म न्यूनाधिक रूप से अपना प्रकाश कर रहा है और यथायोग्य हित भी कर रहा है। ऐसो उनकी विचार धारा थी। उनकी इस विचारधारा के प्रमाणस्वरूप उनके द्वारा रचित श्री अध्यात्मवाणी ग्रन्थ है तथा जाति-पाति के भेदभाव रहित सबको अपनाना है। प्रत्येक धार्मिक और व्यावहारिक क्रियानों में प्रात्म-ज्ञान को पुट होना चाहिए यह उनका मूल मन्त्र है। बिना मात्मभावना के समस्त क्रियाएँ
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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