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* तारण-वाणी *
ही शेष रहती है । वह तो अपने आप में पूर्ण तृप्त और सब बातों से भरपूर सुखी रहता है जबकि संसारी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि पुरुष के भीतर दुःख और विकल्पों के ढेर लगे रहते हैं और सोचना रहता है कि तोर्थंकर होते तो भविष्य पूँछ लेते, केवली होते तो उनसे मुक्ति का वरदान नांग लेते, इत्यादि विचारों में हो डूबा रहता है । संसार की इस अज्ञान दशा को देखकर कभी नो हँसता है और कभी करुणाभाव से आँसू भी बहाता है कि देखो ये संसारी मात्र अपनी
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ज्ञानता से ही दुखी हो रहे हैं। यदि यह आत्मा के आनन्द को समझें तो एक क्षण में सब दु:ख दूर हो जायें। और आनन्दं परमानन्दं का भोग करने लगें । अन्यथा वही कहावत चरितार्थ कर रहे हैं कि जैसा वीर ने कहा है--"जल में मीन प्यासी, मोहि सुन-सुन आवत हांसी"
११२ - जिन अलख लखिउ सुइ अगम पऊ, जिन अगम - अगम दर्शन्तु । जिन्होंने अलख कोलख लिया है मानो उन्होंने अगम्य का भी गम्य करके पा लिया है। और वे जिन हिए अन्तरात्मा की अगभ्यता को पाकर उस अगम्यता का दर्शन कर रहे हैं, उसी में लीन सराबोर हो रहे हैं ।
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- उब उत्रन उवन दर्पंतु दसंतु रे, उव उवन सहावे समय मौ 1 उब उवन समय विलसंतु, विलसंतु रे उब उवन सहावे मुक्ति पौ
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श्री तारण स्वामी कहते हैं कि - जिस ज्ञानी पुरुष को श्री अरहंत का उपदेश हृदयंगम हो जाता है वह उस उपदेश सरोवर में मग्न हो जाता है और स्वयं की आत्मा को उपदेश रूप बना लेता है और उस अपनी ही आत्मा में उत्पन्न हुए उपदेश सरोवर में रमण करता है और नन्द का भोग करता हुआ उसी उपदेश के सहारे मुक्ति को प्राप्त कर लेता है 1
११४ - जिन समय अर्क सिवपंथ, पंथ जिन स्वामी हो ।
जिन तारन तरन विवान मौ, सुनि न्यांनी हो ।
जिन समय सिद्धि सम्पत्तु, सिद्ध जिन स्वामी हो ।
श्री तारण स्वामी कहते हैं कि – अन्तरात्मा का प्रकाश ही शिवपंथ-मोक्षमार्ग है । अन्त सम्मा के प्रकाश होने पर हो यह आत्मा जिनस्वामी हो जाती है जिसे चौथे गुणस्थान से शिवपथ मिल जाता । भी ज्ञानो जन ! सुनो, वही चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा 'जिन' तारन तरन वान बन जाती है, और वही 'जिन' क्रमशः गुणस्थानों में चढ़ती हुई अपनी आत्मा की परिपूरा सिद्धि सम्पन्न होकर जिनस्वामी- सिद्ध- - अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।
११५ - जय जयं जयं जिन श्रावलिया, उब उबन समय मुक्तावलिया । जिनका अपना पुरुषार्थ अन्तरात्मा के भावों की वृद्धि में ही रहता है वे उस अपनी आत्मा में ही मुक्ति का दर्शन कर लेते हैं । मुक्ति-दर्शन ही परमात्मदर्शन है, यही भावमोक्ष है ।