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* तारण-वाणी
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१०५-सुद्ध सरूवे सहज सनन्दे, तब आयरन सुद्ध सुइ सुद्धपयं । आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप है उसमें सहजानंद द्वारा रमण करने लगना ही शुद्ध तप है। वही सच्चा तपाचरण है कि जिस तप के द्वारा शुद्धात्मा की जाग्रति या प्राप्ति होती है। यही सच्चा अंतरंग तप है। प्रात्मरमणता के बिना सब क्लेशमात्र हैं ।
१०६-भवियन अन्मोय तरन, सुइ सिद्ध जयं । हे भव्यजन ! तरन कहिए तुम्हारी अंतरात्मा से प्रीति करना ही मुक्ति प्राप्ति का कारण है। आत्मा से प्रीति, आत्मा के समताभावों की व उसके आनन्द गुण की रक्षा करना, उसमें रागद्वेष, मोह, काम, क्रोधादि विकार भावों की जाप्रति न होने देना।
१०७-कलन कमल जै जै जै, जयो जयो सज्जनं सुवनं । हे सज्जनो ! मन, वचन, काय के ( त्रियोग के ) द्वारा आत्म-ध्यान की वृद्धि करो, वृद्धि करो, वृद्धि करो। वह ध्यान ही ज्ञानविकास का कारण है, ज्ञान-विकास ही केवलज्ञान को प्राप्त करने का क्रम है।
१.८-अहो जिन जिनवर जिनके हिय बसें, अहो जिन तिनके हिय हुव मुक्ति रमै । जिनके हृदय में जिन तथा जिनवर का वास हो जाता है उनके हृदय में मुक्ति का निश्चित निवास हो जाता है, जो समय पाकर मुक्त हो जाते हैं।
१०६-युवजिन उवने समय सिय रमने, सह समय मुक्ति पथ पाया रे । जिनके हृदय में साश्वत जिनका रमण हो गया है उन्हें मुक्ति-पंथ मिल गया ऐसा जानो।
१९०-तार कमल सेहरो-आत्मकल्याणकारी सेहरा, इसमें-रमनजिन, कमलजिन, विंदजिन, दृष्टीजिन, उवनजिन, अलखजिन, खिपकजिन, मुक्तिजिन, ममलजिन, सहजजिन, परमजिन, सुयजिन, अमियजित समयजिन, नन्तजिन, लखनजिन, नन्दजिन, सियजिन, पमेजिन, तरनजिन, इस तरह बीस जिन सेहरों का वर्णन किया है कि हे भव्यजीव ! तू इन सेहरों को बांध कि जिनके द्वारा मुक्ति-कन्या को वरेगा । १११-जिन अपने रंग मन्दिर में रे, कीड़ उवन जिन स्वामी ।
कमन कर्न हँसि पूछन लागे, जन काहे अकुलाने ॥
तीर्थंकर सों कासिहु बूझे, केवली सों कासिहु मांगे । सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने आपके आनंद रंग मन्दिर में अपने आपको तीनलोक का स्वामी मानकर हँसते हुए पूँछ रहा है कि ये संसारी प्राणो क्यों पाकुलित हो रहे हैं ? यह तीर्थकर से क्या पूछना चाहते हैं और केवलो से क्या मांगना चाहते हैं ?
विशेष-सम्यक्ती पुरुष को दृष्टि में न तो कुछ भी तीर्थकर से पूछने वालो और न कुछ केवली से ही मांगने वाली बात हो बाकी रहती है, और न पर वस्तु के माश्रित कोई सुखाकाँक्षा