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* तारण-वाणी * सोलहकारण भावना में सब का मूल सर्व प्रथम की दर्शनविशुद्धि नाम की भावना है व इस एक भावना में ही तीर्थकर गोत्र बांधने का सामर्थ्य है। इसके विना शेष भावनायें कार्यकारी नहीं होती।
१००-परमेष्टि गमनं तं न्यान रमन, तं गम्य अगम्य विलसतु । हे भव्य ! तू ज्ञान में रमण कर, जिससे तेरी पहुँच परमेष्ठी कहिए आत्मा में होगी । तब तू अगम्य जो परमात्मस्वरूप तेरे ही भीतर है उसमें तेरी गम्यता हो जायगी और उसमें ही तेरा विलास होगा, आनन्दरमणता होगी-मोक्षदर्शन होगा।
१०१-वभ चरन, आयरन अरुह रुई । रुई कहिए आत्मा की आराधना करना और इसमें ही आचरण करना ब्रह्मचर्य है ।
विशेष-ब्रह्मचर्य की प्रारम्भ दशा-प्रथम श्रेणी शीलत्रत है, द्वितीय श्रेणी स्त्रीप्रसंग त्याग है, तृतीय श्रेणी ब्रह्मचर्य पद ७वीं प्रतिमा की दीक्षा लेना है, चतुर्थ श्रेणी मुनि अवस्था है जो कि छठवें गुणस्थान में रहती है, पंचम श्रेणी मुनिराज को ७वें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान की चढ़ती स्तरनी हुई ध्यानावस्था है, छठवीं श्रेणी यथाख्यातचारित्र बारहवें गुणस्थान की है और सातवीं श्रेणी श्री केवलो भगवान की है कि जहां परिपूर्ण केवल एक आत्म-आचरण ही है । अत: आत्म कल्याणार्थी श्रावक-श्राविकाओं ( दम्पति) को शीलवत-स्वदारसन्तोष की प्रतिज्ञा में बंध कर रहना चाहिये ।
१०२-दहविहि आयरन सुयं जिनरमनं, भय खिपनिक सुइ अमिय रसं । दस धर्म (क्षमा, मादव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य) इनका आचरण करने पर ही स्वयं की अन्तरात्मा में रमण करने को सामर्थ्यवान होता है । और वही आत्मरमी सप्त भयों का नाश करके आत्मानन्द रस का पान करता है व अमृतत्व को प्राप्त होता है। उत्तम क्षमादि दस धमाँ का आचरण करना ही आत्म-पूजा है।
१०३-असम खिम रमन सु ममल पयं । कषायभावों की मंदना व क्षमाभाव में रमण करना ही आत्मा को निर्मल करने का भव्य द्वार है या आत्म-दर्शन का मार्ग है ।
१०४-आकिंचन आयरन जिनय जिनु अर्थति अर्थ सुममल पयं । हे भव्यो ! आकिंचन्यमेरा कुछ भी नहीं ऐसी भावनाओं में आचरण-प्रवृत्ति करना ही सम्यक्त का प्रकाश है, कि जिस प्रकाश में रत्नत्रय स्वरूप निर्मल आत्मा की प्राप्ति होती है, दर्शन होता है । यह आकिंचन्य धर्म ही ब्रह्मचर्य धर्म की भूमि है, ब्रह्मचर्य धर्म केवलज्ञान की भूमि है, ऐसा जानकर आकिंचन धर्म को प्राप्त करो।