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• वारण-वाची ११६-तारै तर समय सुई तारे, अबलवली जिन जिनय जिनं ।
जिन तुव पय हम सरन, केवल जिन तुव पय सरनं ॥ तारन तरन जो प्रात्मा वह श्री जिनेन्द्र की नय को पाकर अपने बल को प्रकाश करके जिनपद को प्राप्त करती है। श्री तारण स्वामी कहते हैं कि-हे जिनपद प्राप्त आत्मा ! मैं तेरे शरण को प्राप्त होता हूँ तथा श्री केपली भगवान की शरण को भी प्राप्त होता हूँ कि जिनकी नय आदर्श से व उपदेश से हमारी मात्मा बलवान होकर जिनपद-अन्तरात्मपद को प्राप्त हुई है। "व्यवहारे परमेष्ठि जाप, निश्चय शरण आप में प्राप” ११७-उव उवन उवन उव मिलन है, सुइ बंध जिनाई ।
उब उवन रमन रस परिणमउ, सुइ बंध विलाई ॥ उव उवन गमन चिंतामनि चिंति मुक्ति मिलाई ।
उन उवन वास मल्यागिरि वसि मुक्ति बसाई ॥ इसमें अरहन्त उपदेश की महिमा बताई गई है कि-श्री अरहन्त का उपदेश मिलने पर बँधे हुए कर्म जीर्ण-शीर्ण, ढीले पड़ जाते हैं । और जो मानव उस उपदेश के रस में रमण करके तदनुसार परिणमन-प्रवृत्ति करने लगता है, उसके बँधे हुए कर्म विलीयमान होने लगते हैं । तथा उस उपदेश रूपी प्रकाश में जो चिंतामणि आत्मा झलक जाती है उस आत्म-चितवन से भावमोक्ष-जीवनमुक्त दशा की प्राप्ति हो जाती है। और उस उपदेशरूप मल्यागिरि चन्दन की सुगन्धि में वास करने अर्थात् तल्लीन होने पर यह हमारा आत्मा मुक्ति में वास करने लगता है जो कि साक्षात् मुक्ति प्राप्त होने का कारण है।
विशेष-चतुर्थ गुणस्थान से छठवें गुणस्थान पर्यंत की अवस्था जीवनमुक्त दशा है जबकि सातवें से बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान की जो ध्यानावस्था है वह आत्म-तल्लीन दशा है जो कि साक्षात् मुक्ति अर्थात् केवलज्ञान को जाग्रत कर देती है । तात्पर्य यह जानना कि-उपदेश श्रवण, शास्त्र-स्वाध्याय करना ही आत्मकल्याण का मार्ग है, क्रम है। अत: हमें स्वाध्यायप्रेमी होना चाहिये।
११८-चिंता करो, चिंतामनि जय रमना, अप्प परम पय उवनु जिना । श्री तारण स्वामी कहते हैं, हे भव्यो ! चिंतामणिरत्न के समान तुम्हारी जो आत्मा उसमें रमण करने की वृद्धि हो, तल्लीनता बढ़े इसकी चिंता करो, विचार करो। जिस तल्लीनता से तुम्हारी आत्मा परमात्मारूप दिखाई देगी, ऐसा श्री जिनदेव ने कहा है।
भावार्थ-नाशमान संसार की चिंताओं को छोड़कर आत्मकल्याण की चिंता करो। आत्मकल्याण का मार्ग एकमात्र प्रात्मध्यान ही है।