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* तारण-वाणी
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७-अर्क ललित उववन्न, ललितसहावेन ममलरूवेन । हे भव्य ! तू प्रिय जो प्रात्मप्रकाश उसे उत्पन्न कर, उस प्रकाश में जो तेरा परमप्रिय आत्मस्वभाव जो कि अत्यन्त निर्मलरूप है वह तुझे दृष्टिगोचर हो जायगा ।
८०-अर्क कोमल उत्त', कोमल सहकार ललित सुइ सुवनं ।
ललित चरन सिय चरनं, चरनं कमलस्य कर्न निर्वानं ।।
आत्म-प्रकाश में कोमलता-दया सरलतादि गुण उत्पन्न होते हैं। उस कोमलता के कारण प्रियबुद्धि-कल्याणकारिणी बुद्धि उत्पन्न होती है। उस बुद्धि से उत्तम आचरण में प्रवृत्ति होती है। उस आत्मप्रवृत्ति में 'कर्ननिर्वाणं' अर्थात् भावमोक्ष की जाग्रति हो जातो है। जो भावमोक्ष नियम से मोक्ष पहुँचाने का मूल कारण है ।
८१-तं अमियरमन रसरमिय सहज जिन सेहरो। हे भव्य ! तू आत्मा के अमृत रस में रमण कर । उस आत्मरस में रमण करने से तुझे सहज में ही जिनसेहरा बंध जायगा अर्थात् जिनपद की प्राप्ति हो जायगी।
श्री तारन स्वामी ने अनेक फूलनाओं की रचना प्रसंग पाकर की है। किसी वर को सेहरा बांधे हुए देख कर सेहरा फूलना की रचना की गई है। उसमें का ही उपरोक्त एक वाक्य है जिसमें वे कहते हैं-हे मानव ! तू इस संसार प्रपंच सेहरे को क्या बांधे है ! जिन-सेहरा बाँध । अर्थात् अंतरात्मा रूप सेहरा बांध कि जिससे तू मुक्ति-रूपी कन्या को प्राप्त कर सकेगा।
८२-नन्द अनन्दह नन्दह पूरिउ, चिदानन्द जिन उत्तं । ___ सहज नन्द तं सहज सरूवे, परमनन्द सिधिरत्त ॥
हे भव्य ! तू अपनी आत्मा को आनन्द-आनन्द से भर ले, ओत-प्रोत कर ले । उस आनन्द में तुझे चिदानन्द (आनन्दरूप आत्मा) का दर्शन हो जाएगा ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है। और उस आत्मस्वरूप का दर्शन होने पर तुझे सहजानंद की प्रानि होकर सहजम्वरूप से रहते हुए तेरे उस सहज स्वरूप आत्मा में परमानंदरूप सिद्धपद झलक जायगा । आगे कहते हैं
३-पय विदह विन्यान ऊवनो, परमतत्त्व जिन उत्तं । हे भव्य ! भेदविज्ञान के द्वारा 'पयविंदह' मोक्षस्वरूप आत्मा की प्राप्ति या जाग्रति करना ही परमतत्व को पाना है, ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है।
८४-अबलबली अन्मोय, अन्मोयं सुइ खिपिय कम्म बन्धान । अपार बल है जिसमें ऐसी आत्मा में प्रीति करने से बंधे हुए कर्म खिपते हैं । अत: हे भव्य ! तू आत्मा से प्रीति कर ।
८५-कलियं कमलस्य कर्ननिर्वान । आत्म-ध्यान से भावमोक्ष की जाप्रति होती है ।