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* तारण-वाणी #
८६ - मोय कलन सुई रमन रमाई रे । अन्मोय कलन श्री मुक्ति लहाई रे ||
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जिसे ध्यान से प्रीति होती है, वह ध्यान उसे आत्मरमण करने में सहायक होता है और वह ध्यान को प्रीति करने वाला मानव - योगी मुक्तिश्री मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करता है ।
८७ – पं० श्री लखिमन लख्य माँ भवियन भव्वु सिद्ध सम्पत्तु भवियन । हे भव्यजन ! पं० श्री श्रेष्ठ जो आत्मा उसे लखो । और अपने लक्ष्य में उसे हो प्रतिष्ठित करो। उसकी प्रतिष्ठा करने से हे भव्यजन ! तुम्हें भव्य उत्तम सिद्धसम्पत्ति प्राप्त होगी ।
- नि:संकह हो संक जु विलियो धम्म सहाए । हे भव्य ! निःशंक होकर तू आत्मधर्म को प्राप्त हो, उस आत्मधर्म के स्वभाव से तेरी समस्त शंकायें विलीयमान हो जायंगीं । - मुक्तिसुभाए मुक्तिरमन जिन, मां मोहि न्यानरमन जिन भावैगो । जिन कहिए अंतरात्मा, कैसा है वह ? मुक्तिस्वभाव वाला है व मुक्तिरमण स्वरूप है । हे जिनवाणी माता ! मुझे जो न्यानरमण करने वाला ऐसा जिन (अन्तरात्मा ) वही प्रिय है या होगा ।
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६० – सुचेयन नन्दह सहज सुहाओ, परमानंदं तं मुक्तिपओ । हे भव्य ! सुचेयन-निर्मल आत्मा उसके श्रानन्दरमण से सहज स्वभावत: ही उत्पन्न होने वाला परमानंद मुक्तिप्रदायक है।
६१ - विन्यानवीर्य तं मुक्तिपत्र पय समयह समय संजुतु । भव्य ! भेदविज्ञान के बल से मुक्ति प्राप्त करो । भेदविज्ञान से ही आत्मा समताभाव को प्राप्त होती है जो समताभाव ही मुक्तिप्रदायक है । विशेष - शास्त्रज्ञान - मात्र से मुक्ति नहीं मिलती, शास्त्रज्ञान से जब वैराग्य भावनायें जाग्रत होकर श्रात्मानंद झलकने लगता है तब ज्ञान भेदज्ञान कहलाता है, जह भेदज्ञान मुक्तिप्रदायक होता है ।
६२ - सिद्ध सरुव सुरति, तरन जिन खेलहिं फागु |
मुक्तिपथ सुइ उत्रने, सहसमय सिद्धि सम्पतु ||
तर जिन अंतरात्मा फाग खेलती है या खेलती ही रहती है, किसके साथ ? अपनी आत्मा के सिद्धस्वरूप की सुरति अर्थात् अनुभूति के साथ । वह अनुभूति ही मुक्तिपंथ को उत्पन्न करके समय पाकर सिद्धसम्पत्ति को प्राप्त करा देती है ।
६३- हम बाहुलो हो उमाहो स्वामी तुम्हरे उवएसा ।
चल चल न हो जिनवर स्वामी अपने देसा ||
श्री तारन स्वामी आत्मानंद में मग्न होकर अपने आप की अंतरात्मा की ध्वनि में बाहुले हो जाते हैं, मस्त - पागल हो जाते हैं। और उमंगपूर्वक कहते हैं कि हे आत्मन् ! मैं तुम्हारे उपदेश