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* तारण-वाणी #
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७३ – भयविपय अमिय रस खनं, तारन श्रन्मोय परम पिउजुतं । जो भव्य, श्रात्मानंद रस में रमण करते हैं उनके समस्त भय दूर हो जाते हैं । व तारन कहिए आत्मा, उससे प्रीति करके परमात्मपद संयुक्त हो जाते हैं अर्थात् श्रात्मा में परमात्मपद को पा जाते हैं । और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अनुकूलता पाते ही मोक्षधाम चले जाते हैं । तात्पर्य यह कि आत्मानन्द रसरमण ही मोक्ष का मूल है ।
७४ – पय संजोय नन्द अनन्दह, पय परम न्यान संजुनओ । अपनी आत्मा को आनन्दरूप अर्थात् आत्मानन्द स्वरूप का संयोग जोड़े केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं ।
७५ - सुनन्द नंद चेयनंद सहजनन्द नन्दियो ।
पय कहिये आत्मा, जो रहते हैं वे ही मानव
सुपरमनन्द परमोतु सुपरम सिद्धि रत्तश्र ||
श्री तारण स्वामी ने नन्द, आनन्द, चेयानन्द, सहजानन्द और परमानन्द ये पांच श्रेणियां कहीं हैं । नन्द माने हैं चार अर्थात् चारगुण अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तबल और अनन्तसुख । इनकर सहित होने से आत्मा को नन्द कहा है । अतः जो भव्य - नन्द कहिए आत्मा को श्रानन्दरूप श्रेणी में ले जाते हैं वे चढ़ती हुई द्वितीय श्रेणी वाले होकर चेयानन्द अर्थात् आत्मदर्शन को प्राप्त होकर आत्मानन्द में मग्न होने लगते हैं । तत्पश्चात् वह मग्नता सहजानंद का रूप ले लेती है और वह सहजानन्द अपने आपको आत्मा में परमानन्दभाव की जाग्रति कर देता है; जिस परमानन्दभाव में सिद्धस्वभाव का वास 1
७६ - स्वामी देहाले सुइसिद्धाले भेउ न रहै ।
ज जाके अन्मोय सुन्यानी मुक्ति लहै ||
जो स्वामी परमात्मा सिद्धालय - मोक्ष में है, हे भव्य ! वही तेरी देह में है। दोनों में रामात्र भी भेद नहीं जानना । जो ज्ञानी अपनी आत्मा से प्रीति करता है वह मुक्ति पाता है । आत्मा से प्रीति करने का अर्थ है आत्म-शांति रखना, जोकि राग, द्वेष, विषय, कषाय व मोह के अभाव में ही रहती है ।
७७ – न्यान डोरिमन राखियो वीजौरोदे । हे श्रात्मन् ! तू अपने आत्मबल से ज्ञान - डोरी अपने हाथ में रखना । एक मात्र इसी आत्मबल की आकाँक्षा रखना । दूसरे संसारी - जनबल, तनबल, बुद्धिबल, धनबल, ये तेरा साथ न दे सकेंगे ।
७८ - ने आनन्दह नन्द सुरमनं सुक्खम सुइ परमानंद । हे भव्य ! तू आनन्द स्वरूप आत्मा में रमण कर । श्रात्मानंद में रमण करना ही सच्चा सुख है और सोई परमानंद अवस्था है या उस परमानंद में पहुँचाने वाला है ।