________________
* तारण-वाणी
[२१५
अवश्य है, करना ही चाहिये, किन्तु यह मान्यता मिथ्या है कि उससे सम्यकदर्शन होता है या गुण-लाभ होता है । अनादिकाल से शुभाशुभ भाव करता चला आ रहा है, फिर भी अभी संसार में क्यों भ्रमण कर रहा है ? लोगों की अनादिकाल से पुण्यभाव अनुकूल प्रतीत हो रहे हैं इस. लिये उन्हें छोड़ने की बात नहीं रुचती। जिसे स्वभाव के अपूर्व पवित्र गुण प्रगट करना है उसमें शुभभाव जितनो लौकिक नीति की पात्रता तो होती ही है, सच्चे व्यवहार का ज्ञान तो होता ही है। उसके बिना सम्यकदर्शन के आंगन में आने की तैयारी नहीं हो सकती । यहां यह नहीं कहते है कि-शुभभाव से गुण प्रगट होते हैं, क्योंकि धर्म के नाम पर उत्कृष्ट शुभभाव भी जीव ने अनंत वार किये है, किन्तु प्रतीति के बिना किंचित् मात्र भी गुण प्रगट नहीं हुए। यहां ऐसा वस्तुम्वरूप कहा जा रहा है कि जिससे जन्म-मरण दूर हो सकता है । और जो कुछ कहा जा रहा है उसे स्वयं अपने आप निश्चित कर सकता है, और अभी भी वह हो सकता है।
पुण्य का निषेध करने का यह अर्थ नहीं है कि पाप किया जावे या पाप भावों का सेवन किया जाये। जिसे धर्म की रुचि है वह पाप की प्रवृत्ति छोड़कर दया दान इत्यादि शुभभाव किये बिना रहता ही नहीं।
देह की अनुकूलता के लिये या स्त्री पुत्र धन प्रतिष्ठा के लिये जितनी प्रवृत्ति करता है वह सारी सांसारिक प्रवृत्ति अशुभ राग है-पाप है।
जिनशासन में, किसी शास्त्र में क्रिया की बात (निमित्त का ज्ञान कगने के लिये) आती है. वहां उपचार से वह कथन समझना चाहिए। यदि परमार्थ से वैसा ही हो तो परमार्थ मिथ्या हो जाय । श्रात्मा गुणरूप है; और जो गुण हैं सो दोषों के द्वारा, शुभाशुभ गग के द्वारा प्रगट नहीं होते। यदि व्रतादि के शुभभावों से गुण प्रगट हों तो अभव्य जीव मिथ्याद भी उम व्यवहार के द्वारा शुभ भाव कर के नवमें अवेयक तक अनन्तवार हो पाया है, किन्तु उसे कभी गुण-लाभ अर्थान
आत्मा का जो सम्यकदर्शन है गुण उसका लाभ नहीं हुआ; इसलिये सिद्ध हुआ कि शुभ राग या मन, वचन, काय की क्रिया से जिनशासन (आत्मस्वरूप ) की प्राप्ति नहीं होती, फिर भी यदि कोई उसे माने तो वह अपनी मान्यता (मिथ्यामान्यता ) के लिये स्वतंत्र है।
परलक्ष के बिना कभी भी राग नहीं होता, इसलिये शास्त्र में अशुद्ध अवस्था के व्यवहार का और शुभ राग में अवलम्बन क्या होता है, इसका ज्ञान कराने के लिये असद्भून व्यवहार की बात कही है। यदि अज्ञानी उसमें धर्म मान ले तो राग और पर की प्रवृत्ति ही धर्म हो जाये । जीव अनादिकाल से पर पदार्थ पर तथा रागादि करने पर भार देता आ रहा है, इसलिये यदि कोई वैसी बात करता है तो वह उसे झट अनुकूल पड़ जाती है । ज्ञानियों ने पराश्रय में धर्म स्थापित