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* तारण-वाणी*
"दीन भयो प्रभु पद जपै, मुक्ति कहाँ से होय ?" पराश्रय रहित म्वाधीन अात्मस्वरूप की अनुभूति ही समस्त जिनशासन की अनुभूति है।
मैं शुद्ध हूँ, प्रसंग हूँ, अजर-अमर, अविनाशी हूँ; ऐसी द्धा के बल से निर्मलता प्रगट होती है।
पराश्रित बाह्योन्मुखरूप गग को गुणकर माने तो वह व्यवहार नयाभास ( मिथ्यात्व ) है।
मैं पर से भिन्न निरावलम्बी वीतरागी स्वभाव रूप हूँ; पुण्य-पाप रहित श्रद्धा. ज्ञान और स्थिरता ही मार्ग है।
जिनशासन में 'जिन' शब्द का अर्थ जीतना है; और उसमें गग-द्वेष एवं अज्ञान को जीनकर (नष्ट करके ) पराश्रय रहित ज्ञानस्वभाव स्वतंत्र है। इस प्रकार जानना और श्रद्धा करना मो यहो गग-द्वेष-मोह और पंचेन्द्रिय के विषयों की वृत्ति को जीतना है ।
क्रियाकांड की बाह्य वृत्ति से प्रांतरिक स्वभाव की प्रतीति नहीं होती। उसमें अंतरवृत्ति हो तो ही प्रांतरिक स्वभाव की प्रतीति होता है । और वही कल्याणकारी है ।
ज्ञानी की दृष्टि में राग का त्याग हैकिसी भी प्रकार की शुभाशुभ राग की प्रवृत्ति होना व्यबहारनय नहीं है। कोई भी विकारी भाव गुणकारी नहीं है, किन्तु वह विरोधी भाव है, और जितनी हद तक स्व-लक्ष में टिका रहे उतना निर्मल भाव है; इसे जानना सो इसका नाम व्यवहारनय है ।
लोगों को यथार्थ धर्म का स्वरूप समझ में न पाये इसलिये क्या कहीं अधर्म को धर्म माना या मनवाया जा सकता है ? 'इस समय समझ में नहीं आ सकता' इस निषेधात्मक शल्य को दूर कर देना चाहिए।
जिसे परमार्थ जिनदर्शन की खबर नहीं है उसे व्यवहार की भी सच्ची श्रद्धा नहीं होती, इसलिये उसके द्वारा माने गये या किये गये व्रत, तप, पूजा, भक्ति इत्यादि यथार्थ नहीं होते।
___ पाप से बचने के लिये शुभभाव करे तो पुण्यबंध होता है, इसका कौन निषेध करता है ? किन्तु यदि उस पुण्य की श्रद्धा करे, उसे आत्मा का स्वरूप माने और यह माने कि उसके अवलम्बन के बिना पुरुषार्थ उदित नहीं होता--गुण प्रगट नहीं होता तो वह महामिथ्यादृष्टि है, वह स्वाधीन सत् स्वभाव की प्रतिसमय हत्या करने वाला है। यदि यह कठिन प्रतीत हो तो सत्यासत्य का निर्णय करे, किन्तु असत् से तो कभी भी सत् की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
सम्यक्दर्शन होने से पूर्व भी अशुभभावों को छोड़ने के लिये दया इत्यादि के शुभभाव करता