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* तारण-वाणी *
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प्रगट होती है। शरीर में तो उदयानुसार होता है, किंतु स्वतन्त्र स्वभाव में अपना कार्य बराबर होता ही है।
स्वभाव की श्रद्धा के बिना जितना तर्क होता है सो सर्व विपरीत ही है ।
तत्व की बात समझने योग्य है। जो समझना चाहे वह समझे, और जिसे रुचे वह माने । सत् किसी व्यक्ति के लिये नहीं है। सत् को संख्या की आवश्यकता नहीं है। सत् सत् पर अबलंबित है । सत् को किसी की चिन्ता नहीं होती । त्रिकाल में किसी ने किसी का न तो कुछ सुना है और न कोई किसी को कुछ सुनाता है, सभी अपने भाव में अपनी रुचि के गीत गाते हैं । रुचि का खुला निमन्त्रण है, जिसे जो अनुकूल पड़ा सो मानता है ।
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मिठाई की दुकान पर अफीम की गोलियां नहीं बिकतीं, इसी तरह तत्रज्ञान में इधर-उधर की व्यावहारिक बातों से काम नहीं चलता । तत्त्वज्ञानी का काम तो तत्वज्ञान से ही चलता है। जिसने अमूल्य अवसर पाकर अपूर्व सम्यक्दर्शन का निर्णय श्रात्मा में नहीं किया उसने कुछ नहीं किया । जीवन व्यथ खो दिया ।
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तीन लोक में और तीन काल में कोई किसी का हित अथवा अहित नहीं कर सकता । सब अपनी अपनी अनुकूलता को लेकर अच्छे बुरे भाव ही कर सकते हैं। वीतराग के मार्ग में प्रत्येक वस्तु की स्वतन्त्रता की स्पष्ट घोषणा है ।
दूसरा सब कुछ भूलकर एक बार स्वभाव के समीपस्थ हो । यदि तू संसार के भ्रमण से थककर हमारे पास आया है तब दूसरा सब कुछ भूलकर हमारे अनुभव को समझले; और स्वतंत्र स्वभाव को स्वीकार कर ।
संसार में माता बालक को विश्राम लेने के लिये सुलाती है, किन्तु आचार्य तुझे विश्राम प्राप्त कराने के लिये मुक्ति की बात कहकर अनादि कालीन निद्रा से जगाते हैं ।
हे भाई! तृष्णादि के पाप भावों को कम करके पुण्य भाव करने से कोई नहीं रोकता, किन्तु यदि उस पुण्य में हो संतोष मानकर और विकार को धर्म का साधन मानकर बैठा रहे तो कदापि मुक्ति नहीं होगी । यहाँ धर्म में और पुण्य में उदय अस्त जैसा अन्तर है, यही समझाया जा रहा I
संयोगाधीन दृष्टि वाला धर्म के लिये साक्षात् तीर्थंकर भगवान के निकट जाकर भी अपनी विपरीत मान्यता को चिपकाये हुये, यों ही वापिस आ जाता है ।
जिसने चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ प्रतीति पूर्वक निरावलंबी पूर्ण स्वभाव को जाना है, उसने सर्व शास्त्रों के रहस्य को जान लिया है।