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* तारण-वाणी* लक्ष्मी तिलक करने पा रही है तब मुँह धोने मत जा। पुन: पसा सुयोग अनन्तकाल में भी मिलना कठिन है । समुद्र में डूबी हुई राई के समान पुन: मिलने जैसी इस मनुष्य पर्याय को मिली हुई जानकर इसे सार्थक कर । विषय कषायों में नष्ट न कर। अधिक क्या कहें ?
भगवान ने कहा है कि पर्यायदृष्टि का फल संमार और द्रव्यदृष्टि का फल वीतरागता और फिर मोक्ष है।
यदि कोई कहे कि मैं पुरुषार्थ तो बहुत करता हूँ किन्तु पूर्व कर्म के उदय का बहुत बल है मो इच्छिन फल नहीं मिल पाता, तो यह बात मिथ्या है, क्योंकि कारण की बहुलता हो और काय ( उसका फल ) कम हो ऐसा नहीं हो सकता । अपने पुरुषार्थ की कमी को नहीं देखकर पर निमित्त के बल को देखता है, यही सबसे बड़ा गड़बड़-घोटाला है ।
निमित्तदृष्टि संसार है, और स्वतंत्र उपादान-स्वभाव दृष्टि मोक्ष है।
बिना समझे जीव ने अनन्त बार अनेक शास्त्र पढ़े, पंडित हुआ, वीतराग देव के कहे गये सनातन जैन धर्म का नग्न दिगम्बर साधु हुआ, नवतत्वों का मन में यथार्थ निर्णय किया, किन्तु निमित्त पर लक्ष बना रहा कि मन का पालम्बन आवश्यक है, शुभराग से धीरे-धीरे ऊपर जा सकेंगे, और इस प्रकार पर से, विकार से गुण का होना माना; किन्तु निरपेक्ष, निरावलम्बी, अक्रिय, एकरूप आत्मम्वभाव की श्रद्धा नहीं की।
सम्यक्दर्शन किसी सम्प्रदायविशेष की वस्तु नहीं है। आत्मस्वभाव को सम्पूर्णतया लक्ष में लिये बिना धर्म नहीं होता।
जीव अनन्त बार साक्षात् प्रभु-भगवान के पास ही आया और धर्म के नाम पर अनेक शास्त्र रट डाले, किन्तु यथार्थ आत्म-निर्णय नहीं किया, इमलिये भवदुःख-भवभ्रमण दूर नहीं हुआ।
यद्यपि जीव चित्तशुद्धि के आंगन में अनन्त वार भाया है, किन्तु उसे लांघकर एकरूप म्वभाव का लक्ष कभी नहीं किया । इसलिये निर्विकल्प स्वभाव को पहिचान कर, वस्तु की महिमा को जानकर पूर्ण की ओर की रुचि करना चाहिए । जब यथार्थ स्व-लक्ष के बल से निर्विकल्प शांति की अनुभव रूप अन्तरंग एकाग्रता होती है तब सम्यग्दर्शन की निर्मल अवस्था प्रगट होती है और भ्रांति का नाश होता है। जैसे रोग के मिट जाने पर कुछ प्रशक्ति रह जाती है जिसकी स्थिति अधिक लम्बी नहीं होती, वह पध्यसेवन से दूर हो जाती है; इसी प्रकार स्वभाव में विरोध रूप मान्यता का नाश होने पर (नाश कर देने पर ) उसके बाद वर्तमान पुरुषार्थ को प्रशक्ति अधिक समय तक नहीं रहती। विकार के नाशक स्वभाव की प्रतीति के बल से अल्पकाल में पूर्ण निरोग परमात्मदशा