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* तारण-वाणी*
[२११ पात्मा अपने पद की (स्वभाव की ) ओर उन्मुख न हो और मात्र पर-प्रभु पद को भजता रहे तो कौन मुक्ति दे देगा ? यह निश्चय जान कि तेरी मुक्ति तुझ ही में है।
आत्मा को पहिचाने बिना अनन्तबार शुभ भाव किये तथापि भव का अन्त नहीं आया। भव का अन्त होना ही संसार से छूटना है ।
म्तुति का अर्थ है कि जिसकी स्तुति करता है उसी जैसा अंश अपने में स्वयं प्रगट करना ।
भूल को स्वीकार कर लेने मात्र से भूल दूर नहीं हो जाती और भूल के दूर हुए बिना धर्म नहीं होता।
वस्तुस्वभाव को (आत्मा के स्वभाव को ) जाने बिना कहां टिका जाये ? और टिके बिना ( स्थिर हुये बिना ) चारित्र नहीं होना, तथा चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता, इसलिये मोक्ष के लिये चारित्र चाहिये और चारित्र को यथार्थ ज्ञान चाहिये !
मन, वचन, काय का जो योग है उस योग को कम करना अर्थात् विकल्पों को कम कर देना और प्रात्मस्वरूप में एकाग्र होना सो भगवान की सच्ची स्तुति है ।
भगवान की स्तुति अपने प्रात्मा के साथ सम्बन्ध रखती है, पर भगवान के साथ सम्बन्ध नहीं रखती । सन्मुख विद्यमान ( साक्षात् विराजमान ) भगवान की ओर जो पगन्मुग्व भाव है सो शुभ भाव है, उससे पुण्य बंध होता है, धर्म नहीं ।
स्त्री पुत्रादि की ओर जाने वाला भाव अशुभ भाव है । उस अशुभ भाव को दूर करने के लिये भगवान की ओर शुभ भाव से युक्त होता है। किन्तु प्रात्मा क्या है और धर्म सम्बन्ध मेरे आत्मा के साथ है, यह न जाने, न माने तो उसे भगवान की सच्ची स्तुति या भक्ति नहीं हो सकती। जो इस पचरंगी दुनियां में अच्छा शरीर, अच्छे खान-पान और अच्छे रहन-सहन में रचा पचा रहता है उसे यह धर्म कहां से समझ में आ सकता है ?
सम्यक्दर्शन के बिना सच्चे व्रत नहीं होते और सच्चा त्याग नहीं होता। चतुर्थ गुणस्थान की खबर न हो और सातवें की बात करे तो व्यर्थ है ।
लोग त्याग ही त्याग की बात कहते हैं किन्तु त्याग तो अन्तरंग से होता है, केवल बातों से नहीं। - यदि अनन्त अव्याबाध सुख प्रगट करना हो तो वर्तमान अवस्था के भेद की दृष्टि का त्याग कर और अविकारी स्वभाव की भोर भार दे। अनन्तकाल में भी स्वभाव के बल से एक क्षण भर को भी स्थिर नहीं हुआ है। तेरी स्वतन्त्र दृष्टि से ही अनन्त केवलज्ञान लक्ष्मी उछल उठेगी। जब