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* तारण-वाणी
हो तो भी मात्र ज्ञातारूप रहकर उन सबको सहन करने की शक्ति आत्मा के ज्ञानस्वभाव में विद्यमान है, क्योंकि आत्मा का अपना त कुछ है ही नहीं, बने और बिगड़ेगा क्या ? इसके लिये एक पाश्वनाथ भगवान का दृष्टांत ही पर्याप्त है ।
नरक में रहने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव को वहाँ की वेदना का अनुभव नहीं होता, यह आत्मपुरुषार्थ, आत्म-बल ही तो है ।
नरक की वेदनाओं में भी जीव आत्मानुभव कर लेता है। तू मनुष्यभव पाकर भी व्यर्थ का रोना क्यों रोया करता है ? यहाँ तो नरक के बराबर वेदना नहीं है, अत: सत्समागम का लाभ ले।
भगवान को तारण तरण कहा जाता है, किन्तु जीव तरता तो अपने ही भाव से है, भगवान को तो मात्र बहुमान देने का ही प्रयोजन है कि हे भगवान ! आपने हमें तार दिया है। तरता तो स्वयं ही है।
व्यवहार व्यवहार से सच है, परमार्थ से असमर्थ है । इस स्याद्वाद नय को भलीभांति ममझना चाहिये।
जैसे नगर का वर्णन करने पर. राजा का वर्णन नहीं होता, उसी प्रकार देह के गुणों का स्तवन करने पर केवली भगवान का स्तवन नहीं होता। केवलीपना तो आत्मा में होता है, देह में नहीं।
___ जीवों ने अनादिकाल से यह नहीं जान पाया कि-तत्व क्या है, पुण्य-पाप क्या है, धर्म क्या है, वस्तुस्वभाव क्या है । और न कभी इसकी जिज्ञासा ही की है; किन्तु दूसरे का ऐसा कर हूँ, वैसा करदू, इस प्रकार पर में विपरीत श्रद्धा जमी हुई है, ज्ञान में विपरीतता को पकड़ रखा है और उल्टा सीधा समझ रखा है। किन्तु यदि स्वभाव में कुलांट मारे तो विपरीत श्रद्धा नाश होकर सच्ची श्रद्धा प्रगट हो जाये ।
अज्ञानी मानता है कि भगवान मुझे संसार से पार उतार देंगे, इसका अर्थ यह हुमा कि वह अपने को बिलकुल निर्माल्य मानता है, दीन-हीन मानता है। और इस प्रकार पराधीन होकर भगवान की प्रतिमा अथवा साक्षात् भगवान के समक्ष खड़ा होकर दीनतापूर्वक भगवान से कहता है कि मुझे मुक्त कर दो।
दीन भयो प्रभु पद जपै मुक्ति कहाँ से होय ?" फिर भी दीन-हीन और निर्माल्य होकर कहता है कि हे प्रभु ! मुझे मुक्ति दीजिये। किन्तु भगवान के पास तेरी मुक्ति कहां है ? तेरी मुक्ति तो तुझमें ही है। भगवान तुझसे कहते हैं कि-प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, मैं भी स्वतन्त्र हूँ और तू भी स्वतन्त्र है, तेरी मुक्ति तुझमें ही है।