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* तारण-वाणी .
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ऐसे सनातन सत्य मार्ग का उपदेश हो अत्यन्त दुर्लभ है।
असत्य को मानने वालों की संख्या इस जगत में अधिक ही रहेगी, किन्तु इससे सत्य कहीं ढंक नहीं जाता।
वर्तमान में अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य भव मिला है, तथापि प्राप्त अवसर के मूल्य को न जान. कर पुन: स्वर्ग की या मनुष्यभव की अथात् पुण्य के संयोग की इच्छा करता है। कोई देवपद का इच्छुक है तो कोई राजपद का आकांक्षी है, कोई मानार्थी है तो कोई रागार्थी है; और इस तरह अपने जीवन को खो रहा है।
__ जब तक यह नहीं जान लेना कि स्वयं कौन है, तब तक देव गुरु शास्त्र को भली भाँति नहीं जाना जा सकता । वीतगगी देव गुरु आत्मा ही है, और जो आत्मा की स्वतन्त्र वीतरागता को बतलाते हैं वही सर्वज्ञ वीतराग कथित शास्त्र है।
जो ऐसी शंका करता है कि अरे, मेरा क्या होगा ? उसे भगवानस्वरूप अपनी आत्मा की श्रद्धा नहीं है। जिसे पुरुषार्थ में मन्देह होता है, तथा भव की शंका रहती है उसे अपने स्वभाव की ही शंका रहती है, उसने वीतगग म्वभाव की शरण ही नहीं ली है ।
जो सकचा निराकुल सम्ख वीतराग स्वभाव की शरण में मिलता है वह सुख सम्राट की शरण में भी नहीं मिलता।
हे जगत के जीवो ! अनादिकालीन संसार से लेकर आज तक अनुभव किये गये मोह को अब तो छोदो।
जैसे कोई डुबकी लगाने वाला साहसी पुरुष कुएँ में डुबकी मारकर नीचे से घड़ा निकाल कर ले पाता है, उसी प्रकार ज्ञान से भर हुये चैतन्यरूपी कुएँ में पुरुषार्थ करके गहरी डुबको लगा और ज्ञानघट को ले भा, तत्वों के प्रति विस्मयता ला, और दुनियां की चिन्ता छोड़ दे । दुनियां तुझे एक बार पागल कहेगी, किन्तु दुनियां की ऐसी अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं के आने पर भी तू उन्हें सहन करके, उनकी उपेक्षा करके चैतन्य भगवान कैसे हैं, उन्हें देखने का एक बार कौतूहल तो कर ! यदि तू दुनियों की अनुकूलता या प्रतिकूलता में लग जायगा तो तू अपने चैतन्य भगवान को नहीं देख सकेगा। इसलिये दुनियाँ के लक्ष को छोड़कर और उनसे अलग होकर एक बार कष्ट सहकर भी तत्व का (मात्मतत्व का) कौतूहली हो । कौतूहली यानी आनन्द लेने वाला हो ।
यदि तीन काल और तीन लोक की प्रतिकूलताओं का समूह एक ही साथ सम्मुख वा उपस्थित