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* तारण-वाणी
नहीं किया, नहीं माना, किंतु निमित्त और अवस्था इत्यादि का ज्ञान कराने के लिये संक्षिप्त भाषा में उपचार से कथन किया है। सच्चा परमार्थ तो अलग ही है।
पुण्यभाव चाहे जैसा ऊँचा हो तथापि वह बन्धन भाव ही है। प्रात्मस्वभाव प्रबन्ध है। स्वभाव में पुण्य-पाप के बंधन भाव नहीं हैं। सच्चे देव गुरु शास्त्रों ने पुण्य-पाप के किसी भी राग भाव से रहित मोक्षमागे कहा है, और आत्मा को कर्मबन्ध से पृथक् एवं पराश्रय रहित बताया है। यदि पराश्रय के कथन को ही परमार्थ जानकर पकड़ ले, अर्थात् जो अभूतार्थ व्यवहार त्यागने योग्य है उसी को पादरणीय मानले और व्यवहार के कथनानुसार ही प्रथे मानले तो स्पष्ट है कि उसने व्यवहार से भी जिनशासन को नहीं जाना, किन्तु पर निमित्त के भेद से रहित अबद्ध आदि पाँच भावरूप शुद्ध प्रात्मा को यथार्थ स्वामित प्रतीति के द्वारा जिसने जाना है उसी ने जिनशासन को जाना है, और उसी ने सर्व आगमों के रहस्य को जान लिया है । रहस्यज्ञाता ही सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी है।
उपसंहार जैनागम ने, जैनाचार्यों ने और जैनशासन के प्राचीन एवं वर्तमान तत्वज्ञों ने वस्तुस्वरूप का जो विवेचन किया है, उसका कुछ सार यहाँ दिया गया है परमपूज्य श्री तारणस्वामी के वस्तुविवेचन से इसका खूब मेल बैठता है, इसीलिये यह विचार इस 'तारण-वाणी' ग्रन्थ में साभार सम्मिलित किये हैं। अब, पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इस महत्वपूर्ण, रहस्यमयी चर्चा को पढ़ें, गुनें
और समझे, तथा इसमें जो आत्मकल्याणकारी सच्चा मार्ग दर्शाया है उसे ग्रहण करें । जब तक निश्चय और व्यवहार के रहस्य का भली भांति ज्ञान नहीं होगा तब तक आत्म-कल्याण की भोर प्रथम चरण भी नहीं रखा जा सकेगा। इसलिये बुद्धि और विवेक को जागृत करके सावधानी पूर्वक इस तत्व-रहस्य को समझ कर सत्यार्थ का अनुसरण करो, यही प्रात्मकल्याणकर्ता श्री तारणस्वामी का सदुपदेश है।
-० गुलाबचन्द ।