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* तारण-वाणी
[१८५ वह मोक्ष मानता है। वह यह मानता है कि इस किस्म के अल्प साधन हों तो उनसे इन्द्रादि पद मिलते हैं और जिसके वह साधन सम्पूर्ण हो तो वह मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रमाण से वह दोनों के साधन की एक जाति मानता है।
इन्द्र आदि का जो सुख है वह तो कषाय भावों से भाकुलता रूप है, अतएव परमार्थतः वह दुःखी है । और सिद्ध के तो कषाय रहित अनाकुल सुख है। इसलिये दोनों सुखों को जाति एक नहीं है, ऐसा समझना चाहिये । स्वर्ग का कारण तो प्रशस्त राग है और मोक्ष का कारण वीतराग भाव है । इस प्रकार उन दोनों के कारण में अन्तर है। जिन जीवों के ऐसा भाव नहीं भासना उनके मोक्ष तत्व का यथार्थ श्रद्धान नहीं है ।
मोक्षमार्ग दो नहीं हैं, एक ही है, किन्तु मोक्षमार्ग का निरूपण दो तरह से किया गया है । जहां सच्चे मोक्षमार्ग को मोक्षमार्ग निरूपण किया है वह निश्चय ( यथार्थ ) मोक्षमार्ग है; तथा जो मोक्षमार्ग तो नहीं है किन्तु मोक्षमार्ग में निमित्त है अथवा साथ में होता है उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहा जाता है, लेकिन वह सच्चा मोक्षमार्ग नहीं है।
जो स्व द्रव्य (आत्मा) को ही श्रद्धामय तथा ज्ञानमय बना लेते हैं और जिनके प्रात्मा की प्रवृत्ति उपेक्षा रूप ही हो जाती है ऐसे श्रेष्ठ मुनि निश्चय रत्नत्रय युक्त हैं। और वे ही यथार्थत: मोक्षमार्गी हैं।
बुद्धिमान और संसार से उपेक्षित हुये जो जीव तत्वार्थ के सार को ऊपर कहे गये भात्र अनुसार समझकर निश्चलनापूर्वक मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होगा वह जीव मोह का नाश कर संसारबंधन को दूर करके निश्चल चैतन्यस्वरूपी मोक्ष तत्व को प्राप्त कर सकता है। तात्पर्य यह कि संसार से उपेक्षाभाव किये बिना अर्थात् उदासीन भाव किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।
पहले भेदविज्ञान प्राप्त कर यह निश्चय करना कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता, यह निश्चय करने पर जीव के स्व की ओर ही ( स्वयं आत्मपुरुषार्थ की ओर ही ) झुकाव रहता है । अब स्व की तरफ झुकने में दो पहलू हैं। उनमें एक त्रिकाली चैतन्य स्वभाव भाव जो परम पारिणामिक भाव कहा जाता है-वह है। और दूसरा स्व की वर्तमान पर्याय । पर्याय पर लक्ष्य करने से विकल्प ( राग ) दूर नहीं होता, इसलिये त्रिकाली चैतन्य स्वभाव की तरफ झुकने के लिये सर्व वीतरागी शास्त्रों की, और वीतरागी गुरुओं की आज्ञा है । अत: उसकी तरफ मुकना और अपनी शुद्ध दशा प्रगट करना यही जीव का कर्तव्य है। इसीलिये तदनुसार ही सर्व जीवों को पुरुषार्थ करना चाहिये । इस शुद्ध दशा को ही मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का अर्थ निज शुद्धता की पूर्णता अथवा सर्व समाधान है। और वही अविनाशी और शाश्वत सच्चा सुख है। जीव प्रत्येक समय सच्चा शाश्वत सुख प्राप्त करना चाहता है और अपने ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति भी