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* तारण-वाणी *
संयोग होता ही है कि जिससे उसे उपदेशादिक योग्य निमित्त ( सामग्री ) स्वयं मिलते ही हैं। उपादान ( आत्मा ) की पर्याय का और निमित्त की पर्याय का ऐसा ही सहज स्वाभाविक निमिन नैमित्तिक सम्बन्ध है। यदि ऐसा न हो तो जगत में कोई जीव धर्म (आत्मज्ञान-प्रात्मशान्तिआत्मीय श्रानन्द-सहजानन्द ) प्राप्त कर ही न सकेंगे । और वे सुखस्वरूप कभी नहीं हो सकेंगे। इस पर से यह समझना कि जीव के उपादान के प्रत्येक समय की पर्याय की जिस प्रकार की योग्यता हो तानुसार उस जीव के उस समय के योग्य निमित्त का संयोग स्वयं मिलता ही है।
मोक्ष यत्नसाध्य है। जीव अपने यत्न से ( पुरुषार्थ से ) प्रथम मिथ्यात्व को दूर करके सम्यग्दशन प्रगट करता है और फिर विशेष पुरुषार्थ से क्रम क्रम से विकार को दूर करके मुक्त होता है । पुरुषार्थ के विकल्प से (अर्थात् खाली विचारने भर व कहने भर से ) मोक्ष की साधना और प्राप्ति नहीं होती। मोक्ष का प्रथम कारण सम्यग्दर्शन है और वह पुरुषार्थ से ही प्रगट होता है।
हे भव्य ! तुझे व्यर्थ ही कोलाहल करने से क्या लाभ है ? इस कोलाहल से तू विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र वस्तु को स्वयं निश्चल होकर देख । इस प्रकार छह महोना अभ्यास कर और देख कि ऐसा करने से अपने हृदय-सरोवर में श्रात्मा की प्राप्ति होती है या नहीं ? अर्थात् ऐना करने से अवश्य आत्मा की प्राप्ति होती है। (समयसार )
हे भाई ! तू किसी भी तरह महाकष्ट से अथवा मरकर के भी ( अर्थात हर प्रयत्नों के द्वारा) सत्वों का कौतूहली ( तमाशगीर बनकर ) इस शरीरादि मूर्त द्रव्यों का एक महूर्त ( दो घड़ी ) पड़ोसी होकर आत्मा का अनुभव कर कि जिससे निज प्रात्मा को विलासरूप सर्व परद्रव्यों से भिन्न देख कर इस शरीरादि मूर्तीक पुद्गल द्रव्य के साथ एकत्व के मोह को तू छोड़ ही देगा।
___ यदि यह भात्मा दो घड़ी, पुद्गल द्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करे ( उसमें लीन हो), परीषह आने पर भी न डिगे, तो घाति कर्म नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो । आत्मानुभव का ऐसा ही माहात्म्य है।
सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। सम्यक पुरुषार्थ कारण है और मोक्ष कार्य है । बिना कारण के कार्य सिद्ध नहीं होता। इस कारण और कार्य को ठीक ठीक जानना पर. मावश्यक है। इस कारण और कार्य को नहीं जानने वाले अज्ञानी जन शुभराग अर्थात् पुण्य को कारण और मोक्ष को कार्य मान रहे हैं, यही मूल में भूल हो रही है।
___ जब जीव मोक्ष का पुरुषार्थ करता है तब परम-पुण्य का उदय तो स्वयं होता ही है ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध ही है।
मज्ञानी मिध्यादृष्टि जिस साधन का फल स्वर्ग मानता है उसी जाति के साधन का फल