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* तारण-वाणी -
करता है, किन्तु उसे मोक्ष के सच्चे उपाय को खबर नहीं है अत: विपरीन उपाय प्रति समय किया करता है । इस विपरीत उपाय से पीछे हटकर सच्चे उपाय की तरफ पात्र जीव झुकें और सम्पूर्ण शुद्धता प्रगट करें यही समस्त शास्त्रों का हेतु है।।
ऐसा मानना कि किसी समय निश्चय नय आदरणीय है और किसी समय व्यवहार नय आदरणीय है सो भूल है । तीनों काल अकेले निश्चय नय के आश्रय से ही धर्म प्रगट होता है, ऐसा समझना।
व्यवहार नय के ज्ञान का फल उसका आश्रय छोड़कर निश्चय नय का आश्रय करना है। यदि व्यवहार को उपादेय माना जाय तो वह व्यवहार नय के सच्चे ज्ञान का फल नहीं है किन्तु व्यवहार नय के अज्ञान का अर्थात् मिथ्यात्व का फल है ।
मिथ्यादर्शन संसार का मूल है, वह सम्यग्दर्शन के द्वारा ही दूर हो सकता है, बिना सम्यग्दर्शन के उत्कृष्ट शुभ भाव के द्वारा भी वह दूर नहीं हो सकता ।
संवर-निर्जरा रूप धर्म का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से ही होता है।
सम्यग्दर्शन प्रगट होने के बाद सम्यक चारित्र में क्रमशः शुद्धि प्रगट होने पर श्रावक दशा तथा मुनि दशा होती है।
यदि किसी समय भी मुनि परीषहजय न करे तो उसके बंध होता है, पारीषहजय ही सवर-निर्जरा रूप हैं, किंतु सम्यक्त्वपूर्वक ।
__ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता की पूर्णता होने पर (अर्थात् संवर निर्जरा की पूर्णता होने पर ) अशुद्धता का सर्वथा नाश होकर जीव पूर्णतया जड़ कर्म और शरीर से प्रथक् होता है
और पुनरागमन रहित अविचल सुख दशा को प्राप्त करता है। यही मोक्ष तत्व है। इसका वर्णन मोक्षशास्त्र के दसवें अध्याय में किया है।
प्रातःस्मरणीय श्री उमास्वामी ने अपने अद्वितीय मनन और परिशीलन के द्वारा इस मोक्षशास्त्र ( तत्वार्थ सूत्र ) ग्रन्थ में समस्त जैन धर्म के सार को गागर में सागर' की भांति भर दिया है। हमें इसके मम को समझना चाहिए, न कि मात्र श्रवण करके एक उपवास का नाम मानकर संतोष कर लेना और इतने में ही इतिश्री मान लेना चाहिये । पाठकों को इसमें पद पद पर श्री तारण स्वामी के सिद्धांत का समर्थन मिलेगा।
हे श्रावक ! संसार के दुःखों का क्षय करने के लिये परम शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करके और उसे मेरु पर्वत के समान निष्कप रखकर उसी को ध्यान में ध्याते रहो ।
अधिक क्या कहा जाय ? भूतकाल में जो महात्मा सिद्ध हुये हैं और भविष्य काल में होंगे