________________
* तारण-वाणी.
[ १७१ किया जा सकता है, इसीलिये उन अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादि को उपचार से तप कहा है। यदि कोई जीव वीतराग भाव रूप सत्य तप को तो न जाने और उन अनशनादि को ही तप जानकर संग्रह करे तो वह संसार में ही भ्रमण करता है।
इतना खास समझ लेना कि-निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है, अन्य अनेक प्रकार के जो भेद कहे जाते हैं वे भेद बाह्य निमित्त की अपेक्षा से उपचार से कहे जाते हैं। इनके व्यवहार मात्र से धर्म संज्ञा जाननी। जो जीव इस रहस्य को नहीं जानता नसके निर्जग तत्त्व की यथार्थ श्रद्धा नहीं है । अत: रहस्य जानना चाहिए ।
जिस जोव के सम्यग्दर्शन न हो वह बन में रहे, चातुर्मास में वृक्ष के नीचे रहे, प्रामऋतु में अत्यन्त धूप व शीत काल में तोत्रतम शीत की बाधा सहे, अन्य अनेक प्रकार के काय. क्लेश करे, शास्त्रों के पढ़ने में बहुत चतुर हो, मौन व्रत धारण करे, इत्यादि सब कुछ करे, किन्तु उसका यह सब कुछ वृथा है, संसार का कारण है। इनसे पुण्यबध के सिवाय धर्म का अंश भी नहीं होता। कार्य की सिद्धि नहीं होती। इसलिये हे जीव ! आकुलता रहित समता देवो का कुल मंदिर जो कि स्व का प्रारमतत्व है, उसका ही भजन कर ।
बारह तपों में 'सम्यक' शब्द का प्रयोजन यही है कि प्रत्येक तप में वीतराग स्वरूप के ( आत्मा के ) लक्ष के द्वारा अंतरंग परिणामों की शुद्धता का समावेश हो तभी वे कार्यकारी है, संवर निर्जरा के कारण हैं और संसारभ्रमण से छुटाने में समर्थ हैं, अन्यथा नहीं ।
पांच भेद स्वरूप स्वाध्याय का प्रयोजन और लाभ-प्रज्ञा ( ज्ञान ) की अधिकता, प्रशंसनीय अभिप्राय, उदासीनता, तप-त्याग की वृद्धि, अतिचार की विशुद्धि होनी चाहिये ।
अष्टपाहुड़ के मोक्ष पाहुड़ में कहा है कि जीव आज भी तीन रत्न ( रत्नत्रय ) के द्वारा शुद्धात्मा को ध्याकर स्वर्गलोक में अथवा लौकान्तिक में देवत्व प्राप्त करता है और वहां से चयकर मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करता है ( गाथा ७७ ) इसलिये पंचमकाल के अनुत्तम संहनन वाले जीवों के भी धर्मध्यान हो सकता है, आत्मध्यान हो सकता है।
इस जगत में दो ही मार्ग है-मोक्षमार्ग और संसार मार्ग। आर्तध्यान, रौद्रध्यान ये संसारमार्ग हैं; धर्मध्यान, शुक्लध्यान ये मोक्षमार्ग हैं ।
मिध्यादृष्टि जीव पर वस्तु के संयोग-वियोग को प्रातध्यान का कारण मानता है, इसीलिये उसके यथार्थ में आर्तध्यान मंद भी नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीवों के प्रार्तध्यान क्वचित् ही होता है
और इसका कारण उसके आत्मपुरुषार्थ की कमजोरी है ऐसा वह जानता है। इसीलिये वह स्व का पुरुषार्थ बढ़ाकर धीरे धीरे आर्तध्यान का प्रभाव करके अन्त में उसका सर्वथा नाश कर देता है ।