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* तारण-वाणी *
मिध्यादृष्टि जीव के स्वीय ज्ञान स्वभाव की अरुचि है, इसीलिये उसके सर्वत्र, निरन्तर, दुःखमय ध्यान बर्तता है । सम्यग्दृष्टि जीव के स्व के ज्ञानस्वभाव की अखण्ड रुचि श्रद्धा वर्तती है इसीलिये उसके हमेशा धर्मध्यान रहता है, मात्र पुरुषार्थ की कमजोरी से किसी समय अशुभ भावरूप ध्यान हो जाता है, किन्तु वह मंद होता है ।
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हिंसा, असत्य, चोरी और विषयसंरक्षण के भाव से उत्पन्न हुआ ध्यान रौद्रध्यान है । यह ध्यान पहले से पांचवें गुणस्थान पर्यन्त होता है- हो सकता है ।
धर्मध्यान - ( धर्म का अर्थ है और ध्यान का अर्थ है एकाग्रता ) अपने शुद्ध स्वभाव में जो एकाग्रता है सो निश्चय धर्म ध्यान है; जिसमें क्रिया काण्ड के सर्व आडम्बरों का त्याग है, ऐसी अतरंग क्रिया के आधार रूप जो आत्मा है उसे मर्यादा रहित तीनों काल के कमों को उपाधि रहित निज स्वरूप से जानता है। वह ज्ञान की विशेष परिणति या जिसमें आत्मा स्वाश्रय में स्थिर होता है सो निश्चय धर्म ध्यान है और यही संवर निर्जरा का कारण है। जो व्यवहार धर्मध्यान है वह शुभ भाव है, कर्म (क्रिया) के चितवन में मन लगा रहे, यह तो शुभ परिणाम रूप धर्म ध्यान है । जो केवल शुभ परिणाम से मोक्ष मानते हैं उन्हें समझना चाहिये कि शुभ परिणाम से air व्यवहार धर्म से मोक्ष नहीं होता। हां, पुण्य बंध होता है, जो संसार ही है ।
( समयसार गाथा २६१ )
" शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ||"
अर्थ - पहले दो प्रकार के शुक्ल ध्यान अर्थात् पृथक्त्व वितर्क और एकत्व बितर्क ये दो ध्यान भी पूर्व - धारी श्रुतकेवली के होते हैं। नोट- इस सूत्र में च शब्द है वह यह बतलाता है कि श्रुतवली के धर्मध्यान भी होता है ।
इस सूत्र में पूर्व धारी श्रुतकेवली के शुक्लध्यान होना बताया है सो उत्सर्ग कथन है, इसमें अपवाद कथन का गौण रूप से समावेश हो जाता है। अपवाद कथन यह है कि किसी जीव के निश्चय स्वरूपाश्रित मात्र का सम्यग्ज्ञान हो तो वह पुरुषार्थ बढ़ाकर निज स्वरूप में स्थिर होकर शुक्ल ध्यान प्रगट करता है, शिवभूति मुनि इसके दृष्टांत हैं। उनके विशेष शास्त्रज्ञान न था तथापि ( और उपादेय का निर्मल ज्ञान था ) निश्चय स्वाश्रित सम्यग्ज्ञान था, और इसी से पुरुषार्थ बढ़ाकर शुक्लध्यान प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त किया था ।
कितने ही जीव केवल व्यवहार नय का अवलंबन करते हैं, उनके पर द्रव्य रूप भिन्न साधन साध्य भाव की दृष्टि है, इसीलिये वे व्यवहार में हो खेदखिन्न रहते हैं। वे बहुत पुण्य के भार से गर्भित चितवृत्ति धारण करते हैं इसीलिये स्वर्ग लोकादि की क्लेश प्राप्ति करके परम्परा से दीर्घकाल तक संसार सागर में परिभ्रमण करते हैं। ( देखो पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका )