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* तारण-वाणी उत्तर-वहां शुभभाव को यथार्थ में चारित्र नहीं कहा जाता, किन्तु उस शुभभाव के समय जिस अंश में वीतराग भाव है, वास्तव में उसे चारित्र कहा जाता है।
प्रश्न-कितनेक जगह शुभभाव रूप समिति, गुप्ति, महात्रतादि को भी चारित्र कहते हैं, इसका क्या कारण है ?
उत्तर-वहां शुभभावरूप समिति आदि को व्यवहार चारित्र कहा है। व्यवहार का अर्थ है उपचार; छट्ट गुणस्थान में जो वीतराग चारित्र होता है, उसके साथ महानतादि होते हैं, ऐसा सम्बन्ध जानकर यह उपचार किया है। अर्थात् वह निमित्त की अपेक्षा से यानी विकल्प के भेद बताने के लिये कहा है, किन्तु यथार्थरीत्या तो निष्कषाय भाव ही अर्थात् वीतराग भाव हो चारित्र है, शुभराग चारित्र नहीं।
सामायिक का स्वरूप-समस्त त्रस स्थावर प्राणियों में समताभाव रखना, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र स्वभाव वाला परमार्थ परिणमन, नियम-संयम का और यथाशक्ति तप का साधन, राग-द्वेष मोह परिणति का प्रभाव, शुभाशुभ विकल्प रहित, इन्द्रिय विजयी, पापारंभ से निवृत्त, गुप्ति, समिति का पालन, माध्यस्थ भाव, तथा धर्मध्यान, शुक्लध्यान का करने वाला ही यथार्थ सामायिक करने का अधिकारी होता है।
चारित्र अर्थात श्रात्मरमणता ही मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् कारण है। इसकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होती है कि जिसके होते ही यह जीव तत्काल मोक्ष गमन कर जाता है । अत: आत्मरमणता ही कल्याणकारी है।
शुभाशुभ को निवृत्ति का नाम संवर है। प्रात्मा के स्वरूप में जितनी अभेदता होती है उतना संवर है । शुभाशुभ भाव का त्याग निश्चय व्रत अथवा वीतराग चारित्र है। जो शुभाशुभ रूप व्रत है वह व्यवहार रूप राग है, जो पुण्याश्रव का कारण है, संवर का कारण नहीं ।
जिसके संवर हो उसी के निर्जरा हो । प्रथम संवर तो सम्यग्दर्शन है, इसीलिये जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करे उसी के ही संवर-निर्जरा हो सकती है । मियादृष्टि के संवर निर्जरा गहीं होती।
तप से निर्जरा होती है, किन्तु केवल बाह्य तप से निर्जरा नहीं होती। अनशनादि तप बाह्य तप हैं, स्वाध्यायादि अंतरंग तप हैं। अंतरंग तप में स्वानुभूति-प्रात्मानुभव होता है तब निर्जरा होती है । बाह्य तप अंतरंग तप के साधक हैं, इसलिये आवश्यकता इनकी भी है, परन्तु केवल उन्हीं में अटक कर न रहा जाय, इसका ध्यान रहे ।
अनशनादि को तथा प्रायश्चित्तादि को तप कहा है। इसका कारण यह है कि यदि जीव अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादि रूप प्रवर्ते और राग को दूर करे तो वीतराग भाव रूप सत्य तप पुष्ट