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* तारण-वाणी*
[ १६९ जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा जितने अंश में परीषह वेदन न करे उतने अंश में उसने परीषह जय किया और इसीलिये उसने अंश में कर्मों की निर्जरा की।
सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशम से आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिर होना सो यथाख्यात चारित्र है। यह चारित्र ग्यारवें से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत होता है।
शुद्ध भाव से संबर होता है, किन्तु शुभभाव से नहीं होता, इसीलिये इन पांचों प्रकार ( चारित्र ) में जितना शुद्ध भाव है उतना चारित्र है ऐसा समझना ।
अकषाय दृष्टि और चारित्र-आत्मचारित्र से जितने दरजे (अंश ) में राग दूर होता है उनने दरजे में संवर निर्जरा है, तथा जितना शुभभाव है उतना बंधन (शुभबंध ) है । विशेष यह कि पंचम गुणस्थान वाला उपवासादि वा प्रायश्चित करे तथा और भी तपरूप साधनायें करे उस काल में भी उसे निर्जरा अल्प और छ8 गुणस्थान वाला (मुनि ) आहार विहार आदि क्रिया करे उम काल में भी उसके निर्जरा अधिक है। इससे ऐसा समझना कि-बाह्य प्रवृत्ति के अनुसार निजरा नहीं है । ( देखो मोक्षमार्ग प्र० पृ० ३४१)
कितने ही जीव शुद्ध भावों को संभाल किये बिना मात्र हिंसादिक पाप के ( पंच पापों के) न्याग को चारित्र मानते हैं और महाव्रतादि रूप शुभोपयोग को उपादेय रूप से ग्रहण करते हैं, किन्तु यह यथार्थ नहीं है। क्योंकि मोक्षशास्त्र के सातवें अध्याय में प्राश्रव पदार्थ का निरूपण किया गया है, वहां महाव्रत और अणुव्रत को प्राश्रव रूप माना है, तो वह उपादेय कैसे हो सकतः है ? आस्रव तो बंध का कारण है और चारित्र मोक्ष का कारण है, इसलिये उन महात्रतादि रूप प्रास्त्रव भावों के चारित्र का होना संभव नहीं होता, किन्तु जो सर्व कषाय रहित उदामीन भाव है उसी का नाम चारित्र है । सम्यग्दर्शन होने के बाद जीव के कुछ भाव वीतराग हुये है और कुछ भाव सराग होते हैं। उनमें जो अश वीतराग रूप है वही चारित्र है और वह चारित्र संवर का कारण है । ( मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३३७ )
प्रश्न-जो वीतराग भाव है सो चारित्र है, और वीतराग भाव तो एक ही तरह का है, तो फिर चारित्र के भेद क्यों बतलाये ?
उत्तर-वीतराग भाव एक तरह का है, परन्तु वह एक साथ पूर्ण प्रगट नहीं होता, किन्तु क्रम क्रम से प्रगट होता है, इसीलिये उसमें भेद होते हैं। जितने अंश में वीतराग भाव प्रगट होना है उतने अंश में चारित्र प्रगट होता है, इसलिये चारित्र के भेद कहे हैं ।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो छ? गुणस्थान में जो शुभभाव है उसे भी चारित्र क्यों कहते हो ?