________________
१६८]
* तारण-वाणी
लोग उसे अनुकूल या प्रतिकूल कहते हैं ।
— (१) क्षुधा-परीषह करना योग्य है । असातावेदनी कर्म की उदीर्णा हो तभी क्षुधा उत्पन्न होती है । मुनि के जब यह उत्पन्न होती है तथापि वे आकुलता नहीं करते और बाहार नहीं लेते किन्तु धैर्यरूपी जल से उम क्षुधा को शान्त करते हैं, तब उनके परीषहजय करना कहा जाना है। छट्टे गुण स्थान में रहने वाले मुनि के भी इतना पुरुषार्थ होता है कि यदि योग्य समय निर्देष आहार का योग न बने तो श्राहार का विकल्प छोड़कर निर्विकल्प दशा में लीन हो जाते हैं तब उनके परीषहजय कहा जाता है। इसी तरह की परीषहजय शेष इकईम परीषहों की मुनियों की तथा यथाशक्ति और यथायोग्य परीषहजय श्रावकों की जानना चाहिये ।
याचना धर्मरूप उच्चपद को नीचा करती है और याचना करने से धर्म की हीनता होती है। याचना करने का नाम याचना परीपहजय नहीं है किन्तु याचना न करने का नाम याचना परीपहजय है।
अरति द्वेष करने का नाम अरति परीषह नहीं किन्तु अरति न करना सो अरति परषद जय है।
प्रज्ञा-ज्ञान न होना प्रज्ञा परीषह नहीं किन्तु विशेष ज्ञान होने पर भी उसका अभिमान न होना सो ही प्रज्ञा परीषह जय है।
यदि वेदनीय कर्म का उदय हो और मोहनीय कर्म का उदय न हो तो जीव के विकार अर्थात् राग द्वेष की सक्लेशता नहीं होती; यदि मन्द मोहनीय का उदय हो तो अल्प ही संक्लेशता होगी और यदि तीब्र मोहनीय हो तो तीन संक्लेशता होगी। प्रयोजन यह कि सुग्य का कारण मन्द मोहनी और दुःख का कारण तीब्र मोहनी है और परम सुख का कारण मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव हो जाना है।
जीव का सच्चा पुरुषार्थ-मोहनीय कर्म पर विजय पाना है, क्योंकि सब कमों का राजा मोहनीय कर्म है। शेष सातों कर्म तो उसकी सेना के समान हैं। ध्यान रहे, शुभराग भी मोहनीय कर्म की सेना है, चेतन इस शुभराग को अपना हितू मानता है, परन्तु यह मोह का ही गुपचर है जो चेतन को मोह का बन्दी बना देता है।
चेतन यदि अपना पुरुषार्थ प्रगट करे तो एक क्षण में मोह का नाश करदे। और जिन्होंने अपना पुरुषार्थ प्रगट किया उन्होंने यह करके दिखा दिया तथा जो अपना पुरुषार्थ प्रगट करने में असमर्थ हैं वे अनादिकाल से इस संसार में भटक रहे हैं और अनन्तकाल तक भटकते रहेंगे।
जीव ने पुण्य पुरुषार्थ को ही अपना पुरुषार्थ मान लिया, इसी एक भ्रम ने इसे अनादि. काल से भटकाया और अब भी भटका रहा है । 'पुण्य मीठा विष है।'