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• तारण-वाणी*
ग्दृष्टि के ही होती है, इसीलिये वे भवशिष्ट सरागभाव को हेय रूप से श्रद्धान करते हैं। मियादृष्टि के सरागभाव और वीतराग भाव को यथार्थ पहिचान नहीं होती, इसीलिये वह सराग भाव को सेवर रूप मानता है, और प्रशस्त राग रूप कार्यों को उपादेय रूप श्रद्धान करता है, सो भ्रम है, अज्ञान है और यह अज्ञान संसारभ्रमण का कारण है, भले हो वह देवगति को प्राप्त क्यों न हो जाय ? देवति भी तो संसार ही है। ____ "मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्या परीषहाः ॥"
अर्थ-संबर के मार्ग से च्युत न होने और कमों की निर्जरा के लिये बावीस परीपह सहन करने योग्य हैं।
परीषहों के बारे में यह बात विशेष रूप से ध्यान रखनी चाहिये कि-संक्लेश रहित निर्मल आनन्दवृत्ति बनाए रखकर परोषहों को जीत लेने से ही संवर होता है । यदि परिणामों में संक्लेशता हो जाय और परीषहों को जीता जाय तो संबर नहीं होता, परिणामों के अनुसार पुण्य-पाप का बंध ही होता है अथवा अकाम निर्जरा होती है, क्योंकि सक्लेश परिणामों सहित जो परीषहों को जीतना सो कुतप का रूप बन जाता है।
अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि परीषह सहन करना दुःख है, किन्तु ऐसा नहीं है। परीषह सहन करने का अर्थ दुःख भोगना नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव को तो परीषह जय करते समय आनन्द की पकड़ और उस आनन्द की वृद्धि होती है और वह संवर निर्जरा का कारण होती है। पुनश्च अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि पार्श्वनाथ भगवान और महावीर भगवान ने परीषह के बहुत दुःख भोगे; परन्तु भगवान तो स्व के ( आत्मा के ) शुद्धोपयोग द्वारा आत्मानुभव में स्थिर थे और स्वात्मानुभव के शान्त रस में झूलते थे, लीन थे, मग्न थे, इसी का नाम परीषहजय है । लोगों की ( संसार दृष्टि की ) अपेक्षा से बाह्य संयोग चाहे प्रतिकून हो या अनुकूल हो तथापि राग या द्वेष न होने देना अर्थात् वीतराग भाव प्रगट करने का नाम ही परीषहजय है अर्थात् उसे ही परीषह सहन किया कहा जाता है । यदि अच्छे बुरे का विकल्प उठे तो परीषह सहन करना नहीं कहलाता किन्तु राग-द्वेष करना कहलाता है। राग-द्वेष से कभी संवर होता ही नहीं किन्तु बंध ही होता है। इसलिये ऐसा समझना कि जितने अंश में वीतरागता है उतने अंश में परीषहजय है और वह परीषहजय सुख-शान्ति रूप है। लोग परीषहजय को दुःख कहते हैं सो असत् मान्यता है। लोग जिसे प्रतिकूल मानते हैं ऐसे संयोगों में भी भगवान निज स्वरूप से च्युत नहीं हुये थे इसीलिये उन्हें दुःख नहीं हुआ किन्तु सुख हुआ और इसी से उनके संवर-निर्जग हुई थी। यह ध्यान रहे कि वास्तव में कोई भी संयोग अनुकूल या प्रतिकूल रूप नहीं है, किन्तु जीव स्वयं जिस प्रकार के भाव करता है उसमें वैसा आरोप किया जाता है अर्थात् वैसी ही मान्यता हो जाती है और इसीलिये