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* तारण-वाणी
[ १५३ मिथ्यादृष्टि द्रव्य लिंगी मुनि पांच महाव्रत निरतिचार पालते हैं, उनके भी निश्चय और व्यवहार दोनों ही प्रत्याख्यात नहीं होते, क्योंकि ये भावनाएँ पांचवें और छ गुणस्थान में सम्गरदृष्टि के ही होती हैं, मिथ्यादृष्टि के नहीं होती।
क्रोध, लोभ, भय, हास्य तथा अनुवीचि भाषण ये पांच भावनाएँ अर्थात क्रोध त्याग, लोभ त्याग, भय त्याग, हास्य त्याग तथा सत्य वचन बोलना सत्यत्रत की भावानायें हैं। अनुवीचि भाषण यह भावना भी सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है, क्योंकि उसे ही शास्त्र के मर्म की खबर है, इसी लिये वह सत् शास्त्र के अनुसार निर्दोष वचन बोलने का भाव करता है। इस भावना का रहस्य यह है कि सच्चे सुख की खोज करने वाले को जो मत् शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता हो और अध्यात्म रस द्वारा अपने स्वरूप का अनुभव भया हो ऐसे आत्मज्ञानी को संगति पूर्वक शास्त्र का अभ्यास करके उसका मर्म समझना चाहिये।
शास्त्रों में भिन्न भिन्न स्थानों पर प्रयोजन साधने के लिये अनेक प्रकार का उपदेश दिया है, उसे यदि सम्यग्ज्ञान के द्वारा यथार्थ प्रयोजन पूर्वक पहिचाने तो जोव के हित-अहित का निश्चय हो । इसलिये 'स्यात्' पद की सापेक्षता सहित जो जोव सम्यग्ज्ञान द्वारा ही प्रोति सहित जिन वचन में रमता है वह जीव थोड़े ही समय में स्वानुभूति से शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करता है।
___ मोक्षमार्ग का प्रथम उपाय आगम का ज्ञान कहा है. इसलिये सच्चा आगमज्ञान क्या है इसकी परीक्षा करके आगमज्ञान प्राप्त करना चाहिये। आगमज्ञान के बिनः धर्म का यथार्थ साधन नहीं हो सकता । इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु जीव को यथार्थ बुद्धि के द्वारा सत्य आगम का अभ्यास करना और उसके द्वारा सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । इसी से ही जोव का कल्याण होता है। ( मो. शा० ५७४ )
उपरोक्त लेख में मोक्षमार्ग का प्रथम उपाय प्रागमज्ञान कहा है, न कि मूर्ति का दर्शनपूजन करना, जैसी कि सर्व साधारण लोगों की धारणा-मिथ्या धारणा है । इसी तरह सत्य आगम का अभ्यास करना ही सम्यग्दर्शन प्रगट करने का साधन बताया है, न कि पूजन-प्रक्षाल ।
तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञान से ही आत्मज्ञान होता है और तत्त्वज्ञान पूजन-प्रक्षाल से नहीं, आगम अभ्यास से ही होता है। पागम भी अध्यात्मज्ञान की चर्चा वाले हों, न कि रागरंजित करने वाले कथा पुराण या सांसारिक प्रलोभन देने वाली कल्पित एवं मिथ्यात्वपोषक कथा पुस्तकें । इनसे जिन वचन का मर्म नहीं समझा जा सकता प्रत्युत उल्टा ही असर आत्मा में होकर सांसारिक कामनायें बढ़ जाती हैं। रत्न की परख करना चतुराई नहीं, सच्ची चतुराई तो शास्त्र की परख करने में है कि जिसके द्वारा आत्मा का कल्याण होना है। यदि ठीक परख न कर सकोगे तो आत्मा का महान् अहित होगा और वह संसार में अधिक भटक जायगी ।