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* तारण-वाणी *
सम्यग्दर्शन - ज्ञान होने के बाद पर द्रव्य के आलंबन को छोड़ने रूप जो शुभ भाव है सो अगुन - महात्रत है, उसे व्यवहार व्रत कहते हैं। यद्यपि इस व्यवहार व्रत की आवश्यकता है, किन्तु यह कल्यणकारी तभी है जबकि उपरोक्त निश्चयरूप व्रत व यथार्थचारित्र इसके साथ में हो अन - पापबंध का और अणुव्रत महात्रत पुण्य बंध का तथा निश्चय-त्रत चारित्र कर्म निर्जरा का कारण 1
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राग द्वेष रूप संकल्प विकल्पों की तरंगों से रहित तीन गुनियों से गुप्त समाधि में शुभाशुभ के त्याग से परिपूर्ण व्रत होता है ।
सम्यग्दृष्टि के जो शुभाशुभ का त्याग और शुद्ध का ग्रहण है सो निश्चय व्रत है और उनके ( सम्यग्दृष्टि के ) अशुभ का त्याग और शुभ का जो ग्रहण है सो व्यवहार व्रत है - ऐसा समझना । मिध्यादृष्टि के निश्चय या व्यवहार दोनों में से किसी भी तरह के व्रत नहीं होते । तत्र ज्ञान के बिना महात्रतादिक का आचरण मिथ्याचारित्र ही है । सम्यग्दर्शन भूमि के बिना त रूपी वृक्ष ही नहीं होता ।
निश्चय व्रत अर्थात् स्वरूप स्थिरता अथवा सम्यक् चारित्र, ये तोनों एकार्थवाची हैं और यह श्रात्मकल्याण करने वाले हैं।
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जीवों को सबसे पहले तत्रज्ञान का उपाय करके सम्यग्दर्शन ज्ञान प्रगट करना चाहिये, उसे प्रगट करने के बाद निज स्वरूप में स्थिर रहने का प्रयत्न करना और जब स्थिर न रह सके तब अशुभ भाव को दूर कर देशत्रत महात्रतादि शुभभाव में लगे, किन्तु उस शुभ को धर्म (आत्मधर्म ) न माने तथा उसे धर्म का अंश या साधन न माने । पश्चात् उस शुभ भाव को दूर कर निश्चय चारित्र प्रगट करना चाहिए। यह मो० शा० श्र० ७ के पहले सूत्र का सिद्धान्त है
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मिध्यात्व सदृश महापाप को मुख्य रूप से छुड़ाने की प्रवृत्ति या उपदेश न करना और कुछ बातों में हिंसा बताकर उसे छुड़ाने की मुख्यता करना सो क्रमभंग उपदेश है ।
( मोक्षमार्ग प्रकाशक अ० ५ पृष्ठ ५२६ )
एकदेश वीतरागता और श्रावक की व्रतरूप दशा के निमित्त नैमित्तिक सम्बंध है, अर्थात् एक देश वीतरागता होने पर श्रावक के अत्रत होते ही हैं। इसी तरह वीतरागता और महाव्रत के भी निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। धर्म की परीक्षा अन्तरंग वीतराग भाव से होती है, शुभभाव और बाह्य संयोग से नहीं होती । ( मोक्षमार्ग प्रकाशक )
सम्यग्दृष्टि अभिप्राय में निर्भय और निःशंक रहता है । चारित्र की अपेक्षा से तो आठवें गुणस्थान पर्यंत भय का सद्भाव माना गया है ।