________________
* तारण-वाणी
। [१५१
कर्मयोग मानी कर्तव्य योग, ज्ञानयोग मानी आत्म-योग। ध्यान अवस्था के नहीं रहने पर इन दोनों का उपयोग रहता है जबकि ध्यानावस्था में केवल ज्ञान योग रहता क्या है चित्त की स्थिरता पूर्वक रखना ही चाहिये, तभी ध्यान की सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं होती।
हठयोग असाता वेदनी श्रादि अशुभ कर्मबंध का कर्मयोग साता वेदनी आदि शुभ कर्मबंध का और ज्ञानयोग कम निर्जरा का कारण होता है। अत: आत्मकल्याणकारी तो अन्त में केवल एक ज्ञानयोग ही है।
मिथ्यात्व को अनुसरण कर जो कषाय बंधतो है उसे अनन्तानुबंधी कषाय कहते हैं। यह श्रात्मा के स्वरूपाचरण चारित्र को रोकती है। शुद्धात्मा के अनुभव को स्वरूपाचरण चारित्र इसका कहते हैं। प्रारम्भ चौथे गुणस्थान से होता है और चौदहवें गुणस्थान में इसकी पूर्णता होकर सिद्ध दशा प्रगट होती है।
अभव्य जीव को मन:पर्यय ज्ञान तथा केवलज्ञान की प्राप्ति करने की सामर्थ्य नहीं होती।
श्रात्मा के स्वरूप को तथा देव गुरु शास्त्र धर्म के स्वरूप को अन्यथा मानने की रुचि को विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं।
उत्तम क्षमादि दशधों में उत्साह न रखना, इसे सर्वज्ञ देव ने प्रमाद कहा है। जिसके मिध्यात्व और अविरत हो उसके प्रमाद तो होता ही है ।
व्रत और उसके प्रकार "नि:शल्यो व्रतो”—मिथ्यादर्शन आदि शल्य रहित जीव ही व्रती होता है, अर्थात मिथ्यादृष्टि के कभी व्रत होते ही नहीं, सम्यग्दृष्टि जीव के ही यथार्थ व्रत हो सकते हैं।
हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह अर्थात् पदार्थों के प्रति ममत्व रूप परिणाम-इन पांच पापों से (बुद्धिपूर्वक ) निवृत्त होना सो व्रत है।
___ भगवान ने मिथ्याष्टि के शुभ राग रूप व्रत को बाल वन कहा है । 'बाल व्रत का अर्थ अज्ञान व्रत है' । ( समयसार गा० १५२ )
अणुव्रत-महात्रत रूप जो चारित्र सो वाह्य चारित्र है व्यवहार चारित्र है। प्रात्मकल्याणकारी तो अंतरंग चारित्र होता है। सम्यग्दृष्टि जीव के स्थिरता की वृद्धि रूप जो निर्विकल्प दशा है सो निश्चय व्रत है उसमें जितने अंश में वीतरागता है उतने अंश में यथार्थचारित्र है।