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* तारण-वाणी*
दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न करना सो अन्तराय कर्म के आश्रव के
कारण
प्राणियों के प्रति और व्रतधारियों के प्रति अनुकम्पा दया, दान, सराग संयमादि के योग. क्षमा और शौच, अहंतभक्ति इत्यादि सातावेदनीय कर्म के भाव के कारण हैं ।
अपने में, पर में और दोनों के विषय में स्थित- दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, बध और परिवेदन, ये असाता वेदनीय कर्म के प्राश्रव के कारण हैं।
ज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध में आये हुये प्रदोष, निहन, मात्सर्य, अंतराय, प्रासादान और उपघात, ये ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कमोश्रव के कारण है ।
सर्व ज्ञानों में आत्मज्ञान अधिक पूज्य है, वैसे ही बाह्य पदार्थों के दर्शन करने से अंतर्दशन अर्थात् आत्मदर्शन अधिक पूज्य है । ( कानजी स्वामी )
ब ह्य पदार्थ यानी--अरहंत देव, निम्रन्थ मुनि और शास्त्र इस तरह देव, गुरु शास्त्र ये बाह्य पदार्थ ही हैं, इनके ( साक्षात् अरहन्त देव, मुनि और शास्त्र ) दर्शन से प्रात्मदर्शन अधिक पूज्य है । इमी तरह सम्पूर्ण शास्त्रों अथवा उनके द्वारा हुये तीन लोक के समस्त पदार्थों के ज्ञान की अपेक्षा आत्मज्ञान ही पूज्य है, कल्याणकारी है।
आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य सात कमों का आस्रव प्रति समय हुआ करता है।
शंकाः-दुख में असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है तो मुनियों को केशलौंच, अनशन, तप, आतापन योग इत्यादि में भी तो दुःख होता होगा, तब उन्हें भी यही आश्रव होता होगा जैसा कि क्रोधादि कषाय के द्वारा दुःख में होता है ।
समाधान:-सम्यग्दृष्टि मुनियों को दुःख नहीं होता प्रत्युत वैराग्य भावना की प्रबलता,का आनन्द आता है । हो,जो मिथ्यादृष्टि मुनि मान पोषणार्थ उपरोक्त क्रियायें करते हैं और लोकलज्जा की दृष्टि से खेद सहन करते हैं उन्हें तो असाता वेदनीय कर्म का ही भाव होता है, इसलिये जैनधर्म में हठयोग नहीं ज्ञानयोग और कर्मयोग को ही मान्यता दी गई है।
___ कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों एक साथ रहते हैं पृथक्-पृथक् नहीं रहते। कर्मयोगी को ज्ञानयोगी और ज्ञानयोगी को कर्मयोगी की अपनी मर्यादा के भीतर रहना अनिवार्य है। यह दशा छठवें गुणस्थान तक की जानना । हां, सातवें गुणस्थान जहां से ध्यानावस्था होती ही है वघं से मात्र ज्ञानयोग रह सकता है, क्योंकि अन्त में ज्ञानयोग पर पहुँचने और उसकी पूर्णता होने पर ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।