________________
१२]
* तारण-वाणी* इस स्तोत्र में श्री तारण स्वामी चंदन नाम के शिष्य को सम्बोधन करते हुए कहते हैंहे विनयशील चंदन ! सिद्ध-पद की रुचि ही सिद्ध-पद का कारण है, जिसने निश्चयनय की प्रधानता से भले प्रकार यह समझ लिया है कि यह प्रात्मा सिद्ध के समान शुद्ध, अमूर्तीक, सूक्ष्म, मन व इन्द्रियों से अतीत, ज्ञानमई, दर्शनमई, परम वीतराग व निर्विकार है व परिणमनशील है,
सा दृढ़ श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है, ऐसा दृढ़ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है, ऐसे ही श्रद्धान शानमई भाव में तन्मय होना सो निश्चय सम्यकचारित्र है। इस रत्नत्रय की एकता को स्वात्मानुभव कहते हैं । यह प्रात्मरूप ही भाव है। यह मोक्ष का साक्षात् साधन है । जो इस शुद्धभाव में ग्मण करता है उसके वीतराग भाव के प्रताप से मोह का नाश होकर अरहन्त पद प्रगट होजाता है। जिसमें केवलज्ञान स्वभाव अनन्तानन्त पदार्थों का ज्ञान रखता है। यही अरहन्त फिर चार अयातिया कमों के क्षय से सिद्ध हो जाते हैं। तारण स्वामी जोर देकर कहते हैं यदि हे भव्य जीवो ! तुमको सिद्धपद की प्राप्ति करनी है तो इस मार्ग का सेवन करो । निश्चित होकर आत्मा के बाग में क्रीड़ा करो। इससे यहां भी आनन्द होगा। एक बात खास इसमें बताई है कि आत्मा को परिणमनशील मानने से ही यह संसार अवस्था को त्यागकर मुक्त हो सकता है । कूटस्थ नित्य मानने से बन्ध व मोक्ष बन नहीं सकता है।" श्री योगीन्द्रदेव योगसार में कहते हैं-"जो आत्मा को इस अशुचि शरीर से भिन्न शुद्ध अनुभव करता है वह अविनाशी सुख में लीन होकर सर्व शास्त्रों को जानता है । जो कोई सर्व विकल्पों को छोड़कर परम समाधि को पाते हैं वे जिस
आनन्द को भोगते हैं उसी को मोक्ष का सुख कहते हैं ।" "वास्तव में एकान्त में बैठकर जो इस स्तोत्र का मनन करेगा वह आत्मानुभव को पाएगा। अथवा इस स्तोत्र को बहुत भव्य जीव मिलकर पड़ेंगे व बाजे के साथ गायेंगे उनका आत्मा की तरफ ध्यान जायगा । यह परम कल्याणकारी म्तोत्र है।"
-ब्र० शीतलप्रसाद जी कलशों की गाथा ___ "कलशों की गाथा"-चौ उवन्न सुभाव, दिगतरनन्तनन्ताइजिनदिह । पय कमल सहकार, क्रांति सहकार कलसजिन ढालेय ॥१॥ सहकार अर्थति अर्थ, अर्थ सहकार कलसजिन उत्तं । सुरविजन परिनाम, सहसं अट्ठमि चौ उवन चौवीसं ॥२॥ इस्ट दर्सति इन्द्र, अप्प सहावेन इच्छ अच्छरियं । ऐरावति भायरनं, कमल सहकार जिनेन्द विंदानं ॥३॥ कलस सहाउउत्त, कमल सरूवंच ममल सहकार। भय विनस्य भवियान, धम्म सहकारं सिद्धि सम्पत्तं ॥४॥ सिद्ध सरूवं रूवं, सिद्ध गुन विसेष ममल सहकारं । भयखिपिय कम्म गलियं, धम्म पय पमडि मुक्ति गमनं च ॥५॥ जन्म जैवन्त सुभाव, जाता उववन्न जयकार ममलंच । भय खिपनिक भवियान, जै जै जयवन्त जन्म तित्थयरं ॥६॥ धम्म सहाव संजुतं, तारन तारनं च उवन ममल च। लोयालोय पयेस, तिमर्थ आयरन सिद्धि संपत्तं ॥७॥ भावार्थ-इन कलसों की गाथा में निश्चय रत्नत्रय-मई प्रात्मानुभव को