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* तारण-वाणी
हो धर्म कहा है। इसी के सेवन से यह मात्मा शुद्ध होकर भरहन्त तथा सिद्ध परमात्मा हो जाता है। यहाँ पर तीर्थंकरों के जन्म कल्याणक को निश्चयनय से घटाया गया है । जैसे इन्द्र तीर्थकर को ऐरावस हाथी पर आरूढ़ करके मेरु पर लाता है और १००८ कलशों से न्हवन करता है वैसे यहाँ यह बात्मा ही इन्द्र है सो परमात्म-स्वभावधारी तीर्थकर-स्वरूप आत्मा को देखकर तृप्त नहीं होता है और उन्हें शुद्धाचरण रूपी ऐरावत हाथी पर विराजमान करता है और आत्मा-रूप ही मेक पर्वत के भीतर जो शुद्ध परिणति रूपी पांडुकशिला है उस पर विराजित करके प्रात्मानुभव के १००८ कलशों से अभिषेक करता है। इन कलशों में आत्मानन्द रूपी जल भरा हुआ है। इस प्रकार न्हवन करने अर्थात् आत्मानुभव करने से-व प्रात्मानुभव के बार-बार अभ्यास करने से प्रात्मा चार घातिया कर्मो को हर कर अनन्तदर्शन, अनंतज्ञान, अनन्त सुब, अनन्तवार्य, रूप चार चतुष्टय से शाभित होकर अरहन्न परमात्मा हो जाता है। फिर यही शेष अघातिया कमों का नाश करके सिद्धगति का लेता है : श्रात्मानुभव ही धर्म है ।
“ब्र० शीतलप्रसाद जी" यो तो जैन विद्वानों में यह भी मतभेद है कि इन्द्र का पाना, ऐरावत हाथी को इतनी विशाल कल्पना, कलशों का इतना बड़ा आकार इत्यादि यह मय रूपकमात्र है। फिर भी थोड़ी देर को ऐसा ही मान लो कि ठीक है तो भी अब तो उस इन्द्र की नकल करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अब वह व्यर्थ ठहरती है। श्री तारन स्वामी कहते हैं-भो भन्यो ! भगवान का जन्म कल्याणक तो भगवान के जन्म समय हो गया था। अब तो तुम अपना जन्म-कल्याणक महोत्सव करके दिखायो । यही सच्ची-सारभूत धर्म प्रभावना होगी। अपनी प्रात्मा-रूपी इन्द्र को अपने भीतर विराजित तीर्थंकर का दर्शन कराओ, अपनी आत्मा-रूपी इन्द्र को शुद्धाचरण रूपी ऐरावत हाथी र बैठायो, शुद्ध परिणति-रूपी पाण्डुकशिला पर अपने प्रात्मा में विराजित तीर्थंकर को ले जाकर आत्मानन्द रूपी भरे हुए जल-कलशों द्वारा उसका सच्चा-सारभून अभिषेक करो। और जिस तरह इन्द्र ने भगवान के दर्शन को हजार नेत्र किये थे उसी तरह तुम अपने प्रात्मा के हजार नेत्रों द्वारा
अपने भीतर जो तीर्थकर विराजमान हैं उनका जन्म सम्यक्त के द्वारा करके उमका जन्म कल्याणक करते हुये दर्शन करो। इस तरह की धर्म-प्रभावना अर्थात् आत्मानुभव करने पर तुम्हारी आत्मा वर्ष ही समय पाकर अनन्त चतुष्टयधारी तीर्थकार हो जायगी । और फिर सिद्ध हो जायगी।" मात्मा का जो अभीष्ट वह मोक्ष इस तरह मिलेग । भगवान का जन्म कल्याणक महोत्सव और वह भी इन्द्र की नकल, इन बातों से मोक्ष नहीं मिलेगा, यह जैनधर्म का सिद्धान्त है।
विरोष-यह भी विचार करो कि जन्म-कल्याणक के समय की वह किया जबकि प्रतिमा के ऊपर उबटन लगाकर यह कल्पना करना कि भगवान् के शरीर पर माता के गर्भ का प्रशुचि दूव्य लगा हवा हे कितने दोष की बात है और फिर उसकी प्रक्षाल किया करना इत्यादि सभी थे