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* तारण-वाणी
केवल इसी तत्त्व का कथन श्री तारण स्वामी ने अपने 'श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी' प्रन्थ में किया है। इस ग्रन्थ की टीका और आद्योपान्त पठन, मनन, परिशीलन श्री ब्र. शीतलप्रसाद जी ने करते समय अनेक प्राचार्यों के उद्धरण देकर अपनी अनन्य-भक्ति श्री तारण स्वामी में प्रगट करते हुये लिखा है कि श्री तारण स्वामी का सिद्धांत बिलकुल कुन्दकुन्दाम्नायानुसार है । जो इनके ग्रन्थों को पढ़ेंगे और मनन करेंगे उन्हें कल्याण का मार्ग मिलेगा। और अन्त में यह भी लिखा है कि मैं जितना जितना अधिक श्री तारण स्वामी के ग्रन्थों का पठन तथा मनन करता हूँ उतनी उतनी हो बाधक भक्ति और श्रद्धा श्री तारण स्वामी के प्रति बढ़तो जाती है । तात्पर्य यह है कि श्री तारण स्वामी ने अपने ग्रन्थों में जिस अध्यात्म सिद्धांत का कथन किया है वह विलकुल ही जैन सिद्धांतानुसार सारभूत कथन है ऐसा जानना ।
श्री तारण स्वामी के समर्थन में कुन्दकुन्द स्वामी
(मावपाहुइ-कुन्दकुन्द स्वामी) पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैः शासने भणितम् ।
मोहक्षोमविहीनः परिणामः आत्मनो धर्मः ॥८१॥ अर्थ-जिनशासन विर्षे जिनेन्द्रदेव ऐसें कहा है जो पूजा आदिक के विर्षे अर व्रतसहित होय सो तो पुण्य है, बहुरि मोह के क्षोभ करि रहित जो मात्मा का परिणाम सो धर्म है।
___ भावार्थ-देव-गुरु--शासन के प्रति शुभराग सहित पूजा--भक्ति-वैयावृतादि क्रिया तथा उपवा-- सादि व्रत सो पुण्यबंधकारक है । जे केवल शुभपरिणाम ही कू धर्म मानि संतुष्ट हैं तिनिके धर्म की प्राप्ति नाहीं है, यह जिनमत का उपदेश है।
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति ।
पुण्यं भोगनिमित्तं न हु तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ॥८॥ अर्थ-जे पुरुष पुण्य कू धर्म जानि याका श्रद्धान, ज्ञान, माचरण करें हैं ताके पुण्य कर्म का बंध होय है, ताकरि स्वर्गादिक के भोग की प्राप्ति होय है, पर ताकरि कर्म का क्षयरूप संवर निर्जरा, मोक्ष न होय है।
आत्मा आत्मनि रतः रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः । संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनः निर्दिष्टः ॥३॥