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* तारण-वाणी *
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अर्थ- जो आत्मा आत्मा ही विषै रत होय, कैसा रत भया होय ? रागादिक समस्त दोषनिकरि रहित भया संता ऐसा धर्म जिनेश्वरदेव ने संसार - समुद्र तैं तिरों का कारण कहा आगे कहे हैं जो आत्मा को इष्ट नांही करें है अर समस्त पुण्य कूं आचरण करें है तौऊ सिद्धि कूं न पावै है; -
अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषाणि । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनर्भणितः ॥ ८४॥
अर्थ- — अथवा जो पुरुष आत्मा कू नांही इष्ट करे है अर सर्व प्रकार समस्त पुण्य कूं करै तोऊ सिद्धि कहिए मोक्ष ताहि नहीं पावै है, बहुरि वह पुरुष संसार ही में तिष्ठा रहे है । भावार्थ - आत्मिक धर्म धारण किए बिना सर्व प्रकार पुण्य का आचरण करें तोऊ मोक्ष न होय, संसार में ही रहे है ।
एतेन कारणेन च तमात्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन । येन च लमध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ ८५ ॥
अर्थ - पूर्वे कहा जो आत्मा का धर्म तो मोक्ष है, तिस ही कारण कहै हैं जो - हे भव्य जीव हो ! तुम तिस श्रात्मा कूं प्रयत्नकरि सर्व प्रकार उद्यमकरि यथार्थ जानो, बहुरि तिस आत्मा कू' श्रद्धो, प्रतीति करो, आचरो, मन वचन काय करि ऐसें करो जाकरि मोक्ष पावो ! भव्य जीवन को यही उपदेश है ।
मस्स्योऽपि शालिसिक्थोऽशुद्धभावो गतः महानरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम् ||८६ ॥
अर्थ - हे भव्य जीव ! तू देखि शालिसिक्थ कहिए तंदुल नामा मस्त्य है सो भी अशुद्धभाव स्वरूप भया संता सातवें नरक गया, इस हेतु तें तोकू उपदेश करें हैं जो अपने आत्मा कू' जानने कू निरंतर जिनभावना भाय ।
भावार्थ - अशुद्धभाव से तंदुल मत्स्य जैसा सूक्ष्म जीव भी सातवें नरक गया तो बड़ा जीव क्यों नरक न जाय, तातें भाव शुद्ध करने का उपदेश है । श्रर भाव शुद्ध भये अपना पर का स्वरूप जानना होय है, अर अपना परका स्वरूप का ज्ञान जिनदेव की आज्ञा की भावना निरंतर भाये होय है; तातैं जिनदेव की आज्ञा की भावना निरंतर करना योग्य है ।
उपरोक्त प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पूजादि को केवल पुण्यबंध का कारण कहा जबकि आत्म-भावना करते हुए आत्मा को ही इष्ट मानना मोक्षप्राप्ति का कारण कहा । और निरंतर