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* तारण-वाणी *
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अर्थ
- तारन स्वरूप जो तुम्हारा अन्तरात्मा एक मात्र वही मुक्ति का कारण रूप है, बस यही संक्षिप्त में उपदेश है ।
जिनवाणी हृदयं चिंते, जिन उक्तं जिनागमे ।
मव्यात्मा मावये नित्यं पंथं मुक्तिश्रियं ध्रुवं ॥
अर्थ – हे भव्य ! जिनागम में कही गई जो जिन उक्त वाणी, ऐसी उस जिनवाणी का हृदय में चिंतन करो | भव्यात्माओं के द्वारा नित्य भावना की गई जिनवाणी ही मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करने का शास्वत मार्ग है
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तत्त्वादि सप्त तच्चानां द्रव्यकाय पदार्थकं ।
सार्धं करोति शुद्धात्मा, त्रिभंगी समयं किं करोति ॥
अर्थ - सात तत्त्व, छह द्रव्य, पंचास्तिकाय और नौ पदार्थ - इनका स्वरूप जानते हुए जी मानव शुद्धात्मा की श्रद्धा रखता है उस मानव की आत्मा का त्रिभंगी अर्थात् मन, वचन और काय की क्रिया क्या करेगी अर्थात् उसके मन, वचन और काय की क्रिया से आश्रम, बंध नहीं होगा ।
वैराग्यं तिविहि उवनं, जनरंजन रागभाव गलियं च ।
कलरंजन दोष विमुक्कं, मनरंजन गारवेन तिक्तं च ॥
अर्थ - हे मुमुक्षु ! यदि तुम्हें मोक्षाकाँक्षा उत्पन्न हुई है तो तुम तीन बातों से वैराग्य भाव करो - अर्थात् कल कहिये शरीर को आनन्दित करने वाले दोषों को तथा मन को आनन्दित करने वाले गर्व को और पुरजन परिजनों को आनन्दित करने वाले रागभाव का त्याग करो 1 तात्पर्य यह कि मजनित राग, वचनजनित गर्व और शरीराश्रित समस्त दोषों को त्याग करने पर ही तुम्हारी मोक्षाकाँक्षा पूरी होगी ।
जिनदिष्टि इष्ट संशुद्ध, इष्टं संजोय तिक्त अनिष्टं ।
(ख)
इष्टं इष्टरू, ममल सहावेन कम्म संखिवनम् ॥ (37)
अर्थ - हे भव्य ! इरूप तुम्हारी अपनी आत्मा उसे हो तुम इष्टरूप समझो, क्योंकि आत्मा का जो निर्मल स्वभाव, उस निर्मल स्वभाव के द्वारा ही भली प्रकार कर्म खिपते हैं, अतः जिनदृष्टि अर्थात् तुम्हारी अन्तर - आत्मदृष्टि, वही इष्ट है और तुम्हारी आत्मा को पूर्णरूपेण शुद्ध करने वाली है ऐसा जानकर इष्टरूप आत्मसंयोग के द्वारा निरूप कमों को त्याग अर्थात् नाश करो - निर्जरा करो I
भावार्थ — कर्मनिर्जरा एकमात्र आत्मा के निर्मल भावों के द्वारा होती है, दूसरा ऐसा