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* तारण-वाणी* कोई उपाय नहीं कि जिसके द्वारा कर्मों की निर्जरा होती हो, ऐसा जानकर आत्मा के निर्मल भावों के संयोग में ही सदैव रहो। पुनश्च-उपरोक्त वचन की पुष्टि करने के हेतु कहते हैं:
इष्टं च परम इष्टं, इष्टं अन्मोय विगत अनिष्टं । अर्थ-इष्ट ही परम इष्ट है उस ऐमी परमोत्कृष्ट जो तुम्हारी आत्मा उससे प्रीति करने पर ही तुम्हारे समस्त प्रकार के अनिष्ट दूर होंगे, ऐसा निश्चित सिद्धांत जानो।
भावार्थ-जिससे हमारी प्रीति होती है, उसे हम दुःखों में न डालकर उसे सदैव सुखी रखना चाहते हैं, ठीक उसी तरह यदि तुम्हारी प्रीति आत्मा से है तो उसे काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा रागद्वेषादि विषय कषायों और पंचेन्द्रियजनित विषय-वासनाओं के विकल्परूप दुखों में डालकर ममतारू.प सुख में रखते हुए अपने आत्मानन्द का भोग करने दो, यही उससे सच्चो प्रीति करना है। इसके विपरीत जो अपनी आत्मा को विषयानन्द अथवा राग, द्वेष, मोहादि में फंसाते हैं वे उस अपनी आत्मा के शत्रु हैं, मित्र नहीं।
जिन उत्तं सदहनं अप्प परमप्प शुद्धममलं च ।
परम भाव उवलब्ध, धम्म सुभावेन कम्म विलयति ।। अर्थ-जिन उत्तं कहिये जिनवाणी पर श्रद्धान करके अपनी आत्मा को परमात्मा के समान शुद्ध, निर्मलस्वभाव वाली जानो, और उस स्वभाव की उपलब्धि करो, क्योंकि आत्मा का शुद्ध, निर्मल म्वभाव ही उसका अपना धर्म है कि जो धर्म ही कमों को विलीयमान करने वाला है अर्थात् आत्म धर्म से ही कमों की निर्जरा होती है यही सारभूत सिद्धान्त जिनवाणी में कहा है, उस पर श्रद्धान करो और अपनी आत्मा के निर्मल स्वभावरूप आचरण करो। बस यही कर्मसंवर और निर्जरा का मूल कारण है।
न्यानं अन्मोय विन्यानं, ममलसरूवं च मुक्तिगमनं च । अर्थ-हे भव्य ! ज्ञान अर्थात शास्त्रज्ञान ( जिनवाणी ) से प्रीति करने से अर्थात् उसके अध्ययन, मनन और परिशीलन करने से विज्ञान कहिये भेदज्ञान की प्राप्ति होती है और भेदज्ञान होने पर आत्मा का निर्मलस्वरूप प्रगट होता है जो निर्मलस्वरूप ही मुक्तिगमन कराने वाला कहा गया है।
शुद्धतत्त्वं च आराध्य, वन्दना पूजा विधीयते । अर्थ-शुद्धतत्त्व जो आत्मा तत्त्वं च कहिये प्रात्मा तत्व का ज्ञान कराने वाली जो जिनवाणी ( शास्त्र ) इन दोनों की वन्दना और पूजा विधिवत् अर्थात् यथार्थरूप से करने का ही उपदेश