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* तारण-वाणी *
द्वादशांग हो हुई प्रस्फुटित, जिसकी श्रुतमय शुचितम धार । जिसके कण-कण में 'कल कल' कर, बहता आत्म-तत्त्व का सार ॥११॥
तीनों ही कुज्ञान रहित है, जिसकी निर्मलतम काया । भूल नहीं पड़ती है जिस पर, मिथ्यादर्शन की छाया || श्री जिनेन्द्र का मुख - सरसीरुह, जिसका उद्गम तीर्थ महान् । गणधरादि से व्यक्त सदा जो, बहती रहती एक समान ||१२|| मिध्याज्ञान तिमिर को है जो, ज्ञानाञ्जन उपचार महान् । जिसके वर्ण वर्ण में होते, दृश्यमान केवलि भगवान || संशय, विपर्यादिक खगदल, जिसे देख उड़ जाता है । ऐसी उस जिनवाणी माँ को, यह रज शीश झुकाता है ||१३||
देव गुरु शास्त्र को समुच्चय वन्दना -
जिन विभूतियों के ज्ञानों से, पाता स्वयं ज्ञान शृंगार | ऐसे देव, शास्त्र, गुरु को हो, नमस्कार नित बारम्बार || नमस्कार नित बारम्बार ||१४||
श्री तारण स्वामी ने तारणतरण श्रावकाचार में श्रावकों के लिये सर्व प्रथम चौदह गाथाओं में उपरोक्त प्रकार के सन्देव, सतगुरु और सत्शास्त्र की अर्चना बन्दना करने का उपदेश किया है। क्योंकि धर्म के मूल ये ही तीन देव, गुरु और शास्त्र हैं। जहाँ ये सत् स्वरूप हैं वहां समस्त धर्म सत्-धर्म रूप होगा । और जहाँ इनमें कोई भी प्रकार का दोष अथवा कल्पना की बात है वहां पर तो सत-धर्म का अभाव ही जानो, क्योंकि मूल विना वृक्ष और नींव के बिना महल की स्थिरता ही नहीं रह सकती । उन्हीं चौदह गाथाओं का यह पद्यानुवाद श्री चंचल जी ने 'सम्यक् आचार सम्यक विचार' नामक ग्रन्थ में किया है। जो अनुभव और मनन करने योग्य है ।
श्री तारणस्वामी के अपने सिद्धांत और उनमें श्री कुन्दकुन्दादि आचार्यों का समर्थन:
किंचित मात्र उवएस च, 'जिन तारन' मुक्ति कारणम् ॥